पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/१५७

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पहला- घबराती क्यों हो ? कितनों को मारकर तुम मरोगी ! राज्यश्री-सुखी मनुष्य ! तुम मरने से इतना डरते हो। भग्न हृदयों से पूछो-वे मृत्यु की कैसी सुखद कल्पना करते है । दूसरा-अनागत विपत्ति की कल्पना चाहे जितनी सुन्दर हो; पर आ पड़ने पर मृत्यु की विभीषिका उतनी टाल देने की वस्तु नहीं । राज्यश्री-अस्त होते हुए अभिमानी भास्कर से पूछो-वह समुद्र में गिरने को कितना उत्सुक है ! पतंग-सदृश निराश हृदय मे पूछो कि जल जाने में वह अपना सौभाग्य ममझता है या नही ! और तुम तो सैनिक हो, मरने का ही वेतन पाते हो ! दूसरा- और तुम जीने के लिये ? [रण कोलाहल-विकटघोष का प्रवेश] विकटघोष क्यों, यही गप्प लड़ाने का समय है ? जाओ. शीघ्र युद्ध में जाओ, महाराज ने बुलाया है मुझे राज्यश्री को दूसरे स्थान मे ले जाने की आज्ञा हुई है। पहला -तब तो आपके पास कोई आज्ञापत्र होगा? ऐमे हम लोग कैसे टलें ! तीसरा-यह तो पागल है, भला आप असत्य कहेगे। हम लोग जाते है (स्वगत)-किसी प्रकार पिण्ड तो छूटे ! [सैनिकों का प्रस्थान] विकटवोष - भद्रे ! शीघ्र चलो। महाराजकुमार राज्यवर्द्धन का आदेश है कि राज्यश्री को युद्ध से कही अलग ले जाओ। राज्यश्री -क्या ? भाई राज्यवर्द्धन ! विकटघोष-हो, उन्होंने कहा है कि युद्ध के भीषण होने की सम्भावना है, इसलिए आपको शीघ्र ही किसी सुरक्षित स्थान में पहुंचना चाहिये राज्यश्री--तो चलो। विकटघोष-(कुछ विचार कर ताली बजाता है-दो दस्युओं का प्रवेश)-देखो, उसी गुप्त-मार्ग से इन्हे ले चलो, मैं अभी आता हूँ। [राज्यश्री का दस्युओं के साथ प्रस्थान] [नेपथ्य से सुरमा का क्रन्दन । रण-कोलाहल । विकटघोष का उस ओर जाना, सुरमा को लिये हुए फिर आना । सुरमा मूच्छित-सी] विकटघोष-सुरमा ! सावधान ! नहीं तो प्राण न बचेगे ? सुरमा-कौन (चैतन्य होकर) शान्ति ? विकटघोष--चुप तुम चाहे कितनी कुटिलता ग्रहण करो; पर मैं तुम्हे"" सुरमा--मेरे शान्ति--मेरे प्रिय ! राज्यश्री: १४१ - 1