वाक्छल से वह प्रवंचित होती आई। नारी 'अवयव की सुन्दर कोमलता लेकर सबसे हारी' किंवा छलित होती आई। यह प्रसंग युग भेद से प्रकार भिन्न होकर भी अपनी इयत्ता में यथावत रहा। ध्रुवस्वामिनी उपहार में मिली वस्तु है अतः रामगुप्त उसे शकराज को उपहार में दे सकता है। इरावती अनाशृत मालव कन्या है इसलिए छल पूर्वक हस्तगत करने के लिए वृहद्रथ उसे संघाराम में रक्षित कर सकता है।
इस शताब्दी के दूसरे तीसरे दशक में नारी समुदाय की प्रतारणा के विरुद्ध ऐसे मुखर स्वर विरल हैं।
रचनाओं के अनुक्रम से ज्ञात होगा कि इस रूपक शृंखला का आरम्भ और अन्त अश्वमेध पराक्रम वाले पुरुषों पर केन्द्रित है। युधिष्ठिर नायक है सज्जन के, जिनका अश्वमेध लोक विश्रुत है। अन्तिम नाटक है अग्निमित्र! वह पहली नाट्य-कृति है। और, यह अंतिम अग्निमित्र––अपने अश्वमेधयाजी पिता सेनानी पुष्यमित्र को दिग्विजय (विशेषतः शकों के उन्मूलन) के लिए मुक्त रखते देश की आन्तरिक व्यवस्था को बनाए है। पुष्यमित्र ने अन्तिम मौर्य सम्राट् बौद्ध बृहद्रथ को एक सैनिक सत्ता परिवर्तन में निहत कर उस पाटलिपुत्र का नियन्त्रण अब हाथ में लिया जिसके पश्चिम में यवनदिमित्र खड़ा था, दक्षिण पश्चिम से चेदिवंशी जैन खारवेल की सेना शोण के तट तक प्रायः सुगाग प्रासाद तक पहुँच रही थी। नन्द के द्वारा कलिंग से ले जाई गई जिन प्रतिभा को वापस लाने के बहाने मगध को आत्मसात कर उसे प्रति शोध लेना था, मगध के लिए यह भारी संकट-काल था वहाँ का अन्तिम मौर्य राजा बृहद्रथ बौद्ध था और असन्तुष्ट सेना ब्राह्मण सेनानी पुष्यमित्र के हाथों में थी। अन्ततः, सेना के सम्मुख सैन्य प्रदर्शन के बहाने बृहद्रथ को बुलाया गया था। दिमित्र और खारवेल की समस्या सम्मुख थी। कलिंग के दूतों का आवागमन तो जारी था ही उनकी सेना का एक अंश गोरथ गिरि तक जिन मूर्त्ति लाने के बहाने पहुँच गया था। आन्तरिक दुर्बलता और बाहरी दबाव से बृहद्रथ ने जिन मूर्त्ति की वापसी स्वीकार कर ली। उसे यह भी आशा थी कि दिमित्र के विरुद्ध कलिंग-बल से सहायता मिलेगी। ऐसी कुछ सन्धि था स्वीकृति न रहती तो कलिंग के लोग इतनी सरलता से गोरथ गिरि न पहुँच जाते, कुछ प्रतिरोधात्मक युद्ध तो होता ही। किन्तु वैसा कुछ न हुआ और पाटलिपुत्र से राजगृह का राजपथ कलिंग सेना से संकुल हो गया। जिन मूर्त्ति वापस लेकर खारवेल को तो लौटना ही था। दिमित्र के विरुद्ध सहायता का आश्वासन दे मगधराज से अपनी पाद वन्दना कराके खारवेल लौटे, किन्तु उसका सैन्य स्कन्धावार शोण के तट से हटा नहीं। मगध की इस वर्चस्व हीनता से क्षात्रधर्मा ब्राह्मण सेनानी और श्रौत समुदाय ने खिन्न होकर नन्द के बाद दूसरी बार विद्रोह किया। पहली बार भी ब्राह्मण चाणक्य विद्रोह का सूत्रधार था इस बार भी ब्राह्मण सेनानी पुष्यमित्र ने वैसा विप्लव
पुरोवाक् : XV