पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/१४१

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! वहां जाना होता है तो मैं जैसे आग में, पानी में जा रही हूँ ! पैर कांपने लगते है- मानों भूकम्प में चल रही हूँ। देवगुप्त--और यदि मै भी कही का राजा होऊँ सुरमा ! सुरमा--(देखकर)-तुम ! तुम राजा नही हो सकते, असंभव है । तुम तो हमारे-जैसे ही लोग हो, तुम्हारी मुख की ज्योति-उहूँ, तुम और चाहे कुछ बन जाओ, राजा नही हो सकते। देवगुप्त-वाह सुरमा ! तुम सामुद्रिक भी जानती हो ! सुरमा-(पास बैठकर)-अहा ! कितनी सुहावनी रात है-चन्द्रिका के मुख पर कुहरे का अवगुण्ठन नही। स्वच्छ अनन्त में देवताओ के दीप झलमला रहे हैं- कितना सुन्दर है। देवगुप्त--(स्वगत)--कि नी भावनामयी यह युवती है-अवश्य इसके हृदय मे महत्त्व की आकाक्षा है--(प्रकट)-क्यो सुरमा, ऐसी रात तो सुन्दर संगीत खोजती है-तुम कुछ गाना भी जानती हो ? सुरमा-(कृत्रिम क्रोध से)-वाह ! आप तो धीरे-धीरे हाथ-पांव फैलारे । देवगुप्त-(अनुनय से)--सुन्दरी ! एक तान ! अपराध क्षमा हो ! विदेश की यह रजनी आजीवन स्मरण रहेगी--दुहाई है ! सुरमा - मै जानती हूं कि नही, यह नही जानती, पर गाती हूँ--कभी-कभी अपने दुःखी दिनो पर रोती हूँ अवश्य ! देवगुप्त-वही सही सुरमा सुरमा-(गाती है)- आशा विकल हुई है मेरी, प्यास बुझी न कभी मन की रे ! दूर हट रहा सरवर शीतल, हुआ चाहता अब तो ओझल, झुक जाता हे पलकें दुर्बल ! ध्वनि सुन न पड़ी नव घन की रे ! ओ वेपीर-पीर ! हूँ हारी, जाने दे, हूँ मैं अधमारी, मिसक रही घायल दुखियारी- गांठ भूल जीवन-धन की रे । आशा विकल हुई है मेरी (दृश्यान्तर] राज्यश्री : १२५