पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/१४०

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, तृतीय दृश्य [सुरमा का उपवन] देवगुप्त-मालव-नरेश, मैं छद्मवेश में अनेक देश देखता फिरा, किन्तु उस दिन मदनोत्सव में जो आनन्द-दायक दृश्य यहां देखने में आया, वह क्या कभी भूलने को है ! राज्यश्री ! आह कितना आकर्षक --कितना सौन्दर्यमय वह रूप है। [मधुकर का प्रवेश मधुकर महाराज मालव से एक दूत आया है। देवगुप्त--उसे बुला लो मधुकर, मैं अब कुछ दिन यही अपना निवास रक्खूगा । [मधुकर सस्मिति जाता है और दूत के साथ फिर आता है] दूत-जय हो देव ! देवगुप्त-कहो, क्या समाचार है ? दूत-महाराज के अनुग्रह से सब मब मगल है । मन्त्रिवर ने यह प्रार्थना-पत्र श्री चरणों में भेजा है । (पत्र देता है) देवगुप्त-(पढ़ता है)- स्वस्ति श्री-इत्यादि महाराज की आज्ञा के अनुसार वीरसेन सेना के साथ निर्दिष्ट स्थान पर प्रेरित हो चुके है। और भी एक सहस्र सनिक दूत के साथ ही अनेक वेगों मे आपके ममीप उपस्थित है। संकेत पाते ही एकत्र हो सकेंगे। किन्तु देव, परिणाम-दर्शी होकर कार्य आरम्भ करे-यही प्रार्थना है।' (हँसकर पत्र फाड़ता हुआ) मन्त्री वृद्ध हो गये है ! जाओ विश्राम करो ! (दूत जाता है) [सुरमा का प्रवेश] देवगुप्त-आओ सुरमा, यह मेरा माथी एक और श्रेष्ठि आ गया है, तुम्हे कष्ट तो न होगा? सुरमा-(माला एक ओर रखती हुई) -कष्ट ! ओह ! कष्टों का तो अभ्यास हो गया है। अभी राज-मन्दिर गे हो आयी। सुना है कि महाराज मृगया के लिए सीमाप्रान्त चले गये हैं। में उन विभव-विलास के प्रदर्शनों को, उपकरणों को, अपनी दरिद्रता की हँसी उड़ाते देखती हुई, लौट आयी हैं। यह मल्लिका का बाल-व्यजन क्या होगा-मेरा दिन भर का परिश्रम ! देवगुप्त-(सहानुभूति)-नो मैं इसे ले सकता हूं सुरमा ! सुरमा-आप ? ले लीजिये ! देवगुप्त--तुम्हारे महाराज कुपित तो न होंगे। सुरमा-होना है सो हो जाय- -श्रेष्ठि, मैं राजा को देखकर बड़ा डरती हूँ ! १२४ : प्रसाद वाङ्मय