पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/१४

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गई'। 'अब इन्द्र लिखना है बहुत दिनों से टलता आ रहा है उसी के कुछ प्रसंग देखने हैं'। 'और वह रूपक द्वादशी जिसकी योजना बन चुकी है?' 'उसके स्थान पर उपन्यास लिखूँगा प्रेमचन्द का भी कुछ ऐसा ही आग्रह है––' 'आग्रह है या चुनौती' 'चाहे जो हो लेकिन मुंशीजी की 'बहस काबिल मानने के रही', इन्द्र चलता रहेगा और संग संग ये भी चलेंगे मसाला तो पूरा तैयार है।' इससे प्रतीत होता है कि जैसे कामायनी के ८ वर्ष के लेखन काल में स्कन्दगुप्त प्रभृति अनेक रचनाएँ होती गईं वैसे ही इन्द्र नाटक के लेखन काल में भी प्रस्तावित योजना की अन्य कृतियाँ प्रस्तुत होती जातीं। किन्तु वाग्देवी को कामायनी के बाद और सेवा नहीं लेनी थी अतएव 'ऊधो मन की मन ही मो रही'।

पश्चिम से बढ़कर अयोध्या तक पहुँचे यवन दिमित्र (Demitrius) (अरुण द्यवन साकेत––महाभाष्य) और दक्षिण से बढ़कर शोण तट पर किंवा पाटलिपुत्र सुगाग प्रासाद के समीप तक कलिंगराज खारवेल की सेना पहुँच गई थी। ––"मागधाना चविपुलं भय जनयन् हस्त्यश्व गगाया पाययति" (खारवेल का हाथीगुम्फा लेख)। दोनों ही अवैदिक शक्तियाँ मगध के उस बौद्ध राजतन्त्र को निगलने के लिए प्रस्तुत रही जो मनुष्यता-हीन धर्माडम्बर में विलास-क्लीव राजन्य संस्कृति का वैसा छाया पुरुष था जो भीतर से अपनी शक्ति हीनता में अवसन्न और बाहर से दृप्ति की चेष्टा में व्यस्त था। वह भारतीय इतिहास की विषम घड़ी थी। किन्तु, उसी में आर्य संस्कृति के नवोत्थान का अवसर भी प्रतीक्षा कर रहा था। और भगवान पतंजलि उस अवसर को सावधानी से देख रहे थे। आर्य वर्चस्व के प्रतीक इन्द्र ध्वज की प्रतिष्ठा के लिए उन्होंने ब्राह्मण सेनापति पुष्यमित्र को प्रेरणा दी। मगध की रक्षा ही नहीं हुई प्रत्युत पुष्यमित्र ने दो अश्वमेध भी किए 'द्विरश्वमेध याजिनः सेनापते पुष्यमित्रस्य' (अयोध्यास्तंभ लेख––धनदेव) अश्वमेधयाजी पुष्यमित्र अपने को सदैव सेनापति कहता है––राजा नहीं, क्योंकि उस समय सेना का महत्व सिंहासन से अधिक हो गया था।

पुष्यमित्र के द्वारा वृहद्रथ का सैन्य निरीक्षण के समय वध हर्षचरित और वायुपुराण में कहा गया है। इस परिवेश में अग्निमित्र की प्रस्तावना मात्र ही हुई थी कि उसने इरावती का रूप ग्रहण कर लिया किन्तु इतिहासगत वस्तुता वही रही, परन्तु बात अधूरी भी पूरी न हुई।

नर-नारी संबंध की कामायनी में जो प्रस्तावना हुई है उसकी फलश्रुति अग्निमित्र और ध्रुवस्वामिनी में है। वहाँ आदि नारी श्रद्धा मनु से पूछती है––'किन्तु बोली क्या समर्पण आजका हे देव बनेगा चिर बन्ध नारी हृदय हेतु सदैव?' जैसी उसकी आशंका रही पितृ सत्तात्मक समय में पुष्टतर होते होते हजारों वर्षों बाद ध्रुवस्वामिनी और इरावती में प्रत्यक्ष होती गई पुरुष का पौरुष-परुष-क्रूराचार एवं उसके अन्तर्जात

XIV : प्रसाद वाङ्मय