(हर्षवर्धन चुप हो जाते हैं) राज्यश्री-"भाई ! क्या यह तुम्हे अस्वीकार है।" हर्षवर्धन- "सब स्वीकार है, पर तुम्हारा भिक्षुनी का वेश मुझसे न देखा जायगा।" राज्यश्री-"फिर अब किस सुख की आशा पर राजरानी का वेश इस क्षणिक संसार मे धारण करूं ?" स्कन्दगुप्त -"देव ! स्वीकार कीजिये । दूमरा उपाय नही है । हर्षवर्धन-“मन्त्री ! जो द्रव्य आया है सब बहिन की इच्छानुमार यहाँ वितरण किया जाय और भिक्षुओ के तथा भिक्षुनियो के लिये यहाँ उचित प्रबन्ध कर दो। और भी हर पांचवे वर्ष इसी तरह का एक दानोत्सव हुआ करे। जिसमे दीनों को पूर्ण मन्तोष हो । उसमे सम्भव है कि वहिन को भी सन्तोष हो।" राज्यश्री- "और उम दानोत्सव का नाम सतोष-क्षेत्र रखा जाय। तथा बोल, शैव, शाक्त या वैष्णव किसी का आग्रह करके दान न किया जाय ।" हर्षवर्धन - "ऐसा ही होगा।" राज्यधा-"जय सम्राट हर्षवर्द्धन की जय ।" (सब लोग) "जय सम्राट् की जय । "जय करुणामयी राज्यश्री की जय" (गान समवेतस्वर से) करुणा कादम्बिनि बरसे। दुख से जली हुई यह धरणी प्रमुदित हो सरसे ॥ प्रेम प्रचार, रहे जगतीतल दया दान दत्मे । मिटे कलह शुभ शाति प्रकट हो अचर और चरम् ॥ (आलोक के साथ पटाक्षेप) " राज्यधी : ११३
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