द्वितीय दृश्य (नरेन्द्र-सभासद-प्रकोष्ठ में) नरेन्द्रगुप्त- (घबड़ाया हुआ) "रुद्रगुप्त ! चित्त व्याकुल हो रहा है। जिस कारण से राज्यवर्धन की""की गई वह मफल होती नहीं दिखाई देती। मेरा साहस नहीं होता कि मै कान्यकुब्ज पर अपना अधिकार भण्डि और स्कन्दगुप्त के सामने स्थापित कर मकं ।" रुद्रगुप्त - "अभी तो रात ही की बात है । बात फैली नहीं है । आप मावधान रहिये । रहग्य को छिपाने के लिये चाहे तो गायिका को बुलाकर गाना सुनिये; जव ममाचार मर्वमाधारण को मालूम हो, तब आप भी शोक मनाइये ।" नरेन्द्रगुप्त "किन्तु भण्डि और म्कन्द दोनों ही बड़े चतुर हैं, इनसे कोई बात छिपी न रहेगी । देखो क्या होता है । मग्ला कहाँ है ?" सरला-(प्रवेश करके) क्यों प्यारे ! क्या है ?" नरेन्द्रगुप्त "प्यारी, हृदय की ज्वाला बढ रही है। शर्वत ।" (सरला पानपानले आती है--नरेन्द्र पीता है) नरेन्द्रगुप्त (सरला को पास बैठाकर) कुछ गाओ। (गान) "जव प्रीति नही मन में कुछ भी, नयों फिर बात बनाने लगे। सब रीति घटी, हाँ प्रतीति उठी, फिर भी हँसने मुसुकाने लगे । मुख देख मभी सुख खो दिया था, दुख मोल इमी सुख को लिया था। सर्वस्व ही तो हमने दिया था, को तरसाने लगे। मब मांग हुई सिसकी तन में, सब नीर भरा इन नैनन में। तब भी दया प्रकटी तन में, तुम कैसे कृपालु कहाने लगे ॥ जब प्रीति नही मन में०॥ नरेन्द्रगुप्त -"आहाहा ! वाह वाह ।' सभासद -"क्या कहना है !" तब तुम देखने न राज्यश्री : १०७
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