उच्छलित बिन्दु कालान्तर में विधानियत होते थे। कोई बिन्दु-विशेष काव्य की रेखा बनेगा अथवा नाटक की या गद्यात्मक कथा में आधान ग्रहण करेगा यह कदाचित उस बिन्दु की लोलायित लीला पर निर्भर था। एक कृती जब अनुभूति की अभिव्यक्ति अनेकविध कर रहा हो तब विधा विशेष की अनुसारिणी अनुभूति न होगी प्रत्युत अनुभूति ही अनुकूल विधा का चयन करेगी। किन्तु पश्चिमीय दृष्टि (क्रोशे) जहाँ अनुभूति की आद्यता और स्वात्मसंवेद्यता देखी नहीं जा सकी––विश्व प्रपंच में अनुभूति की स्फुरत्ता को कोई स्थान नहीं दिया गया––वह अभिव्यक्त के पीछे कोई अनभिव्यक्त और अनुभूतिमात्र इयत्ता भी है––यह कैसे स्वीकार करेगी। किन्तु वहाँ भी इस प्रत्यक्ष-मात्रता-वाद के जाड्य से मुक्ति की व्याकुलता है।
अस्तु ध्रुवस्वामिनी की ऐतिहासिकता उसकी 'सूचना' में विवक्ष्य है (पंचमखण्ड अवलोक्य)। किन्तु, उसमें जातीय पराभव के दूसरे आवर्त्त में समुद्रगुप्त के दिग्विजय के बाद कृतकृत्यता जनित अकर्मण्य-भाव विलासिता और क्लैव्य में परिणत हो चला था। धन सम्पत्ति की भाँति स्त्रियों को भी विदेशी आक्रामकों से छिपा कर रखने की प्रवृत्ति ने स्त्रियों को पूर्णतः पशु-सम्पत्ति का रूप दे दिया था। ध्रुवस्वामिनी उपहार में मिली वस्तु है अत: उसे शकराज को उपहार में देना असंगत नहीं––तदानीतनसमाज के इस विकृत चित्र को ध्रुवस्वामिनी सम्मुख रखते नारी पक्ष के अधिवाचन में शास्त्रीय प्रमाण देती है। क्लैव्य और विलासिता की प्रतिमूर्त्तिरामगुप्त, प्रवंचना का अवतार शिखर स्वामी, दैन्य की प्रतिमा ध्रुवदेवी, मिथ्याशील का निचोल डाले वीर चन्द्रगुप्त––पराभव के दूसरे आवर्त्त मे उन बर्बर विदेशी आक्रमणों की फलश्रुतियाँ हैं। मन्दाकिनी, नारीवर्चस्व को––स्त्रीत्व को उसका उचित प्राप्य दिलाने और चन्द्रगुप्त में स्वाभिमान जगाने में उद्युक्त है। उसने अपने समय में अलका (चन्द्रगुप्त) और देवसेना (स्कन्दगुप्त) के समकक्ष कार्य किया है। इन्हीं प्रमुख चरित्रों से ध्रुवस्वामिनी का गठन हुआ है। उसमें महत्त्व का विषय पुनर्भूप्रसंग है।
पश्चिम में भी शोषित और शोषक के मीमांसन में नारी को आदि शोषित बताया गया है (फ्वेर बाख शोध प्रसंग में एंगल्स की टिप्पणी)। समाज के इस गंभीरतम प्रश्न पर कामायनी में समुचित मीमांसन हुआ है।
नारी समुदाय के आदि शोषित वर्ग वाले मानव समाज में दाम्पत्य केवल पुरुष की इच्छा पर निर्भर चला आ रहा है (जब से मातृ-सत्तात्मकता निरस्त हुई) इसका अकरुण और अमानवीय रूप ध्रुवस्वामिनी में प्रस्तुत हुआ और उसके प्रतिकरण में शास्त्रीय पक्ष भी प्रस्तुत हुआ (अवलोक्य ध्रुवस्वामिनी––सूचना, पंचम खण्ड)। पुनर्भूव्यवस्था सामाजिक सन्तुलन की वस्तु है जो अति प्राचीन काल से चलकर कुछ उप जातियों में अद्यावधि वर्तमान है : संयोगवश ध्रुवस्वामिनी के लेखक वैश्यों की