पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/१११

यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

जय जय जय स्थान (सखियों से) सखियो ! इस महामंगल के लिये, भावी युद्ध में प्राणनाथ के विजय लिये, आओ, पुनः भवानी से प्रार्थना करें।" (समवेत स्वर से) जय जय जय महाशक्ति, जय जय जय ईश भक्ति, सदा मुक्ति, अभय कारिणी। प्रकृति जड़ प्रकाश मान, विलसत प्रतिभा महान, तूही है विश्व--धारिणी ।। (मन्दिर में अट्टहास । राज्यश्री मूच्छित होती है) (अंधकार के साथ पट-परिवतंतन) चतुर्थ दृश्य (नगर के समीप में देवगुप्त घबड़ाया हुआ) देवगुप्त-(स्वगत) “सीमाप्रान्त का क्या समाचा' है, अभी तक सुनने में नही आया। वीरसेन की वीरता पर तो मुझे बड़ा भरोसा है पर यह मोखरी कुलदेशरं मी महज नही है । इधर मै भी इतने मनुष्यों के साथ दूसरे की राजधानी में हूँ। बड़ी विषम समस्या है। कुछ समझ में नहीं आता कि क्या करूं। अच्छा यदि सीमा के युद्ध में वीरसेन विजयी हुआ तब तो मैं इन चुने हुए सैनिकों के द्वारा इस अरक्षित राजधानी को हस्तगत कर लूंगा। और यदि, ऐसा न हुआ, तब तो शीघ्रता से मालव पहुंच कर सब दोष सेनापति के सिर पर रखकर मैं अलग हो जाऊँगा। क्योंकि, यह तो प्रसिद्ध ही है कि मालवेश्वर बहुत दिनों से तीर्थ यात्रा को बाहर गये है। (ठहर कर) मधुकर अभी तक नही आया। आता ही होगा (टहलता है) राज्यश्री ! राज्यश्री !! यह सब देवगुप्त तेरे लिये कर रहा है । क्या (मधुकर का प्रवेश) देवगुप्त--"कहो जी क्या समाचार है ?' मधुकर--"सुनिये सीमाप्रान्त के युद्ध में आप विजयी हुए। किम्वदन्ती है कि ग्रहवर्मा को कड़ी चोट आई है। वीरसेन ने कान्यकुब्ज की सेना पहुंचने के पहले ही युद्ध प्रारम्भ कर दिया, इसी कारण व विजयी हुए। नगर में सेना बहुत कम है, मेरा अनुमान है कि आपके सैनिक उनसे विशेष है। देवगुप्त--"अहा हा ! अब क्या मधुकर सुनो, (कान में कुछ कहता है) (प्रकट) जब कुछ और सेना सीमा की ओर ग्रहवर्मा की रक्षा के लिये चली जाय तो जिस ढंग से बताया है उसी तरह मेरे सब सैनिक कन्नौज दुर्ग में एकत्रित हो जायं। और संकेत 'विजय' का ध्यान में रहे । बस शीघ्र जाओ। (प्रस्थान) तू मुझे मिलेगी ?" राज्पधी: ९५