जिसकी धूल में लोटकर खड़े होना सीखा, जिसमें खेल खेलकर शिक्षा प्राप्त की, जिसमें जीवन के परमाणु संगठित हुए थे वही छूट गया। और बिखर गया एक मनोहर स्वप्न आह वही जो मेरे इस जीवन पथ का पाथेय रहा।' (स्कंदगुप्त प्रथम अंक तृतीय दृश्य)। 'मैं आज तक तुम्हें पूजता था तुम्हारी पवित्र स्मृति को कंगाल की निधि की भाँति छिपाए रहा। मूर्ख मैं––आह मालिनी मेरे शून्य भाग्याकाश के मंदिर का द्वार खोल कर तुम्हीं ने उनींदी उषा के सदृश झाँका था और मेरे भिखारी संसार पर स्वर्ण बिखेर दिया था––तुम्हीं ने मालिनी।' (स्कन्दगुप्त चतुर्थ अंक तृतीय दृश्य)। स्कन्दगुप्त के द्वारा काश्मीर का शासक नियुक्त होकर लौटने पर––अपनी प्रदूषित-मालिनी को शारदा देश में पाने पर––मातृगुप्त का खिन्न होना स्वाभाविक रहा : किन्तु, इस पर भी उसने उद्बोधन-गीत गाया और देश को जगाया। आज भी यह स्कन्दगुप्त कितना और प्रासंगिक है––यह कहना न होगा। मातृगुप्त की प्रणयिनी को कोई और नाम भी मिल सकता था। कदाचित्, यहाँ परम्परा का स्पर्श रहस्यपूर्ण और कौशल से हुआ है। मातृगुप्त का यह प्रसंग इतिहास का पदार्थ पक्ष और चेतना का पक्ष उभय को युगपत स्पर्श कर रहा है।
इसके अनन्तर छठवाँ ऐतिहासिक नाटक वह चन्द्रगुप्त है जिस पर १९०८ ईसवीय से चिन्तन अग्रसर रहा। यद्यपि, इसका लेखन स्कन्दगुप्त से पहले हो चुका था। किन्तु, प्रकाशन संवत् १९८८ (ई॰ १९३१) में हुआ। दो वर्ष पूर्व इसे प्रेस में दे दिया गया था। सरस्वती प्रेस की दशा भी कुछ ऐसी नहीं थी कि वह बड़े काम शीघ्र कर दे दैनंदिन व्यय छोटी-छोटी छपाइयों से चलते थे इसलिए उन्हें पहले करने की बाध्यता रहती थी। वहाँ से अन्यत्र चन्द्रगुप्त को देना भी संभव न था क्योंकि वह मुंशी प्रेमचन्द का प्रेस था जिनसे लेखक और प्रकाशक भारती भण्डार के स्वामी रायकृष्णदास के निजी सम्बन्ध रहे। टाइप कुछ विशिष्ट प्रकार के संभवतः मद्रास की नार्टन टाइप फाउण्ड्री से मंगाने की बात थी। यतः, टाइप थोड़े परिमाण में आवश्यकतानुसार प्रेस लेना चाहता था और फाउण्ड्री का कहना था कि इस प्रकार के टाइप के और आदेश आ जायँगे तब ढलाई होगी, इसी कारण वहाँ पाण्डुलिपि १९२९ से दो वर्षों तक अमुद्रित पड़ी रही और १९३१ के मध्य में छप सकी। लेखन में भी पर्याप्त समय लगा संभव है कुछ नए तथ्यों के उजागर होने की प्रतीक्षा रही हो। एक निबन्ध सम्राट् चन्द्रगुप्त मौर्य संवत् १९६६ में प्रकाशित हुआ था उसे प्रकाशकों ने 'मौर्यवंश' नाम से भूमिका के रूप में सम्मिलित कर लिया। निश्चय ही यदि चन्द्रगुप्त की कोई भूमिका लिखी गई होती तो वह कुछ भिन्न वस्तु होती।
चन्द्रगुप्त के पश्चात् ध्रुवस्वामिनी ई॰ १९३२ में लिखी गई––कलकत्ता-पुरी की यात्रा के बाद। वास्तविकता यह है कि कृतियों के अनेक प्राग्रूप अथवा उनके रेखांकन मनोमुकुर में मातृका-भूमि का स्पर्श करते रहते थे। अनुभूति-घट से
पुरोवाक : XI