पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 3.djvu/८

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क्योकि इसमे प्रेम, प्रमोद और आनन्द को प्राप्य माना गया है। 'इरावती' मे आनन्दवाद का 'एक चूंट' नाटक की भांति प्रचार ही पाया जाता है। भारत की निर्वीयता और आलस्य का कारण विवेकवाद और बुद्धिवाद को मानते हुए आनन्द को ही दुन्दुभी बजाए जाने का इसमे सकल्प है, क्योकि आनन्द एक ऐसा मूल्य है, जो मानव-जीवन मे 'रागतत्व' पैदा करता है और यही रागतत्त्व संगीत, नृत्य आदि विविध कलाओ के रूप में अवतरित होकर जीवन्त समाज की सष्टि करता है । 'इरावती' मे इसीलिए वौर धर्म की निवृत्तिमूलकता और निषेधात्मकता से विद्रोह का भाव पामा जाता है, जो भारतीय समाज की निवृत्तिमूलक निषेधात्मक पवत्तिया को निरर्थक मानकर जात्मवादी साधना को प्रमुखता देता है। आनन्दवाद व्यक्ति की मनोवृत्तियो को संतुष्टि को केन्द्र मे रखकर 'व्यक्ति' को प्रमुख इकाई मानता है और समष्टि को गौण । 'असतो मा सद्गमय, तमसो मा ज्योतिनमय और मृत्योर्मामृत्तगमय' यद्यपि आर्यसमाज का प्रमुख नारा है और वनजरिया के बाबा रामनाथ महर्षि दयानद से प्रभावित भी है परन्तु बाबा रामनाप या ककाल के स्वामी कृष्णशरण जी आर्य समाजी नहीं हैं बल्कि मैथिलीशरण गुप्त के 'भारत भारतो' के उद्बोधनो के समान सोते हुए भारतीय जनता को जगाने का कार्य करने वाले ऐसे सस्कृति पुरुष हैं, जिसके माध्यम से प्रसाद जी केवत भारतीय जाति का हा नही बल्कि मानवता के कल्याण को सास्कृतिक उद्घोषणा करते हैं। प्रसाद प्रेमचन्द की तरह उपन्यास मे इनको स्थापना के लिए कही स्वतः नही उपस्थित होते हैं बल्कि दूर खड़े होकर दृश्य का प्रस्तुतीकरण देखते हैं। प्रसाद जी की समस्या है कि रूढ़ियो और अधविश्वासो से जर्जरित भारतीय समाज का विकल्प क्या है ? यह वेदना ही संकल्पात्मक रूप धारण करके १८२६ के बाद से उनके हर कृतित्व का विषय बनती रही है। दु.ख और दु.ख के विभिन्न कारणो के प्रसादीय निष्कर्ष 'स्कदगुप्त', 'चन्द्रगुप्त', 'एक चूंट', 'घूस्वामिनी', 'प्रतिध्वनि', 'माघी', 'इन्द्रजान', 'ककाल', और 'तितली', को कृतियो के रूप मे सुजित हुए हैं। और इन उपन्यासो मे प्रवाहित जीवन दृष्टि ही बाद में उनके निबंधों का विषय बनी । ये कृतियां बदलते हुए समाज और उसके नये बनते हुए मानव सम्बन्धो को ही नही बल्कि ढहते, सड़ते, और डूबते हुए उन सस्थानो को भी उद्घाटित करती हैं, जो बीसवी शताब्दी मे अपना अर्थ घो चुके हैं। छायावादी प्रवृत्ति के सामाजिक आधार को चित्रित करने या दिखाने के साथ-साथ जयशकर प्रसाद के दिमाग में अपने समकालीन रचनाकारो से कही अधिक बढ़कर "विश्व मानवता' को चिन्ता थी। मुझे तो यह भी लगता है कि ससार मे उठते हुए नये सामाजिक प्रश्नो के फायह, मास, डाविन और न्यूटन आदि के द्वारा दिये गये १२: प्रसाद वाङ्मय