पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 3.djvu/५३२

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कार करिए । प्रभात मे आप राजगृह को प्रस्थान करें। यही अच्छा होगा । युद्धकाल है। रात्रि मे पथ निरापद न होगा। और आज मेरे यहाँ कुछ भद्र पुरपो का निमन्त्रण भी है।" केयूरक ने बात काटकर कहा-"हम लोगो को तुम्हारे यवन-युद्ध से क्या ? श्रेष्ठि ! तुम्हारे उत्सव से भी हमे कुछ सम्बन्ध नहीं | हम लोग तो जाना हो अच्छा समझते हैं।" "तो आप लोगो के लिए अलग प्रकोष्ठ का प्रवन्ध हो जायगा । सब तरह की मुविधा और सुव्यवस्था रहेगी।" धनदत्त ने विनीत स्वर मे कहा । पवन का वेग, बादल की गडगडाहट, बिजलिया का कौधना और बूंदो का उपद्रव वढ रहा था। धनदत्त ने एक कर्मचारी से कहा-"राजगृह के रथ को सुरक्षित स्थान में रहने का प्रबन्ध कर दो, और साथ के भृत्यो को भी विश्राम करने के लिए म्यान बतला दो।" युवक जैसे इस बादल-बूंदी से मन-ही-मन प्रसन्न हो रहा था। केयूरक उद्विग्न । उसने कहा-"मैं साथ ही रहूंगा।" युवक ने सकेत से कहा-"नही ।" उसकी इच्छा जैसे कुतूहलपूर्ण दृश्य देखने के लिए व्याकुल हो रही थी । केयूरक ने उद्विग्न भाव से कर्मचारी के साथ प्रस्थान किया । उसी समय द्वारशाला के नीचे टापो का शब्द सुनाई पडा। युवक ने चौंक कार देखा एक दीर्घकाय बलिष्ठ भगध-सैनिक जल से भीगा हुआ अपने घोडे से उतरा । धनदत्त ने उसे देखते ही अभ्युत्थान करके स्वागत किया। विनीत शब्दो मे कहा--"इस वर्षा मे भी निमत्रण की रक्षा करके आने के लिए मैं कृतज्ञ हूँ, महानायक अग्निमित्र " ____ अग्निमित्र मस्तक से जल का काछते हुए हंसकर बोला-"सैनिको के लिए इतनी-सी वाधा क्या कर सकती है श्रेष्ठि । फिर सभवतः कल ही मुझे नासीर सेना में जाना हो-यवन समीप आ पहुँचे है । एक रात, मित्र के उत्सव मे सम्मिलित होने का फिर अवसर मिले या न मिले।" वह मच पर बैठना चाहता था कि धनदत ने कहा-"नही, पहले आप जाकर वस्त्र बदल ले।" अग्निमित्र सेवक के साथ गया और धनदत्त ने दूसरे परिचारक को आज्ञा दी-"उद्यान के समीप वाला छोटा कक्ष सुसज्जित कर दो, मेरे माननीय अतिथि उसमे विश्राम करेंगे। युवक चुपचाप निश्चित बैठा था । जैसे उसे कुछ करना-धरना नहीं । उधर दूसरी ओर एक वडे-से चौकोर मडप मे, जिसके सुन्दर स्तम्भ मारियो और कुसुमो की मालाओ से सजे थे, कोमल काश्मीरी कम्बलो पर बडे-बडे तक्यिो ५१२: प्रसार वाङ्मय