पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 3.djvu/५२९

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"तो टोक है; रप पर से मेरे अनुचर केयूरफ को बुलवाइए | और इनवा मूल्य बताकर उससे मूल्प ले लीजिए।" धनदत्त के कर्मचारी आदेश के अनुसार दोडे, परन्तु मेघो मे उनसे भी तीव गति थी। पवन के सरटि चलने नगे ये । वडो-चड़ो बूंदे पड़ने लगी। जमन्तुष्ट होकर उस युवक ने आकाश की ओर देया । उसने कहा___ "क्या रहे, फल दो स्त्रियां भगवान का दर्शन करने गई थी। उन लोगो को रत्लापलो देखकर, कलिंग के लोगों का इच्छा हुई कि ऐसी सुन्दर स्वर्ण-प्रतिमा के लिए, पाटलिपुर से हो रत्न क्रय रिये जाय । कलिंग राजकुल की एक महिला ने उन लोगो से पूछा तो उन स्त्रिया ने श्रेष्ठि धनदत्त का नाम बताया। इसीलिए आना पड़ा।" धनदत्त के मन में एक कल्पना हुई। उसने मोना कदाचित् यही दोनो रही हो । पलिंगराज तक पहुँचकर अच्छा व्यापार किया जा सकता है। हो सकता है कि युवराजपुरुप यहोदय इन्ही स्त्रियों के आकर्षण में आ गये हो । उसने कहा "श्रीमान् ! कुमुमपुर की नागरिकाएँ ससार से निराली मनोवृत्ति रखती है। हम लोग तो उनके कलापूर्ण सकेतो पर उसके लिए मुरुचिपूर्ण अलकार और शुङ्गार प्रस्तुत करते रहते हैं । देखिए न ! आज्ञा होने पर मैं ही राजमन्दिर मे चला जाता, परन्तु इन्हे तो सब छोटना है, परखना है । यही आ गई।" युवक ने कुछ उत्तर न दिया। वह कोई दूसरी बात मोच रहा था। वर्षा या वेग वढ चला । दीपक जलाये गये। फेयूरक ने पेलियां उझल दी। कलिंग की स्वर्ण-मुद्राएं उज्ज्वल आस्तरण पर निखरी पड़ी रही । धनदत्त ने कहा-“यथेष्ट हैं।" उस सघन मघ मे काले केयूरक ने लाल आंखो से अलकारो को देखा । उन्हे सहेज कर मजूषा मे रख लेने पर उसने कहा "देव । चलना चाहिए।" युवक का मन उलझ रहा था। उसने कहा-"पथ बडा दुर्गम है और अधकारपूर्ण । थोडा ठहर कर चलना अच्छा होगा, कदाचित् बादल छंट जार्य।" धनदत्त स्वर्ण-मुद्राओ को संभालने में लगा था। उसने ध्यान नही दिया। केयरक ने झुक कर धीरे से युवक के कान में कहा, उसको भाल-रेखाएं कुछ खिची, उमने भी धीरे से कहा-"पाटलिपुत्र की एक रात्रि देखने का लोभ में नही सवरण कर सकता । तुम आवश्यक प्रबन्ध करो।" नाक खिन्न होकर चुपचाप कुछ सोचता रहा । अव धनदत्त ने घूमकर कहा "आप चिता न कीजिए । कप्ट न हो तो आज रात्रि में मेरा आतिथ्य स्वी इरावती : ५११