पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 3.djvu/५२५

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लगा कर देखने लगा । और मणिमाला भी वही आकर खडी हो गई। साथ मे था ब्रह्मचारी! ब्रह्मचारी ने कहा-"ष्ठि ! मैं भिक्षा ले चुका, अब मैं आशीर्वाद देता हूँ।" धनदत्त ने कुढकर उसकी ओर देखा । और ब्रह्मचारी तो कहता ही गया --"आनन्द हो, तुम्हारा भय छूट जाय ! आनन्द ।" दूसरी स्त्री जो अब तक चुपचाप बैठी थो, उठकर खडी हा गई । उसका अवगुण्ठन खिमक गया था । वह क्रोध में भरी हुई वोली "तुम आनन्द के प्रचारक ! यहाँ भी मिथ्या प्रलोभन देने आ गये न।" "अरे । तुम वौद्ध-विहार से निकलकर यहाँ चली आई हो । कैसे । किन्तु ठीक है, मिथ्या ससार से मुक्त होकर वास्तविक जगत् मे आ गई हो देवि ।" ब्रह्मचारी ने प्रसन्न भाव से कहा। ___मणिमाला चकित होकर उन दोनो मुन्दरियो को देख रही थी और भी देख रही थी, अतृप्त लोचनो से धनदत्त का उन्हें देखना। मोती छांटने वाली ने अपना सिर नही उठाया, उसे जैसे इन व्यर्थ की बातो से कोई सम्बन्ध नही । किन्तु साय वाली तो उत्तेजित थी। उसने कहा-"रानी ! अव चलो न ! मुझे इन पाखण्ड-वेशधारियो से अत्यन्त घृणा है । मैं नहीं ठहर सकती।" मणिमाला लाल हो रही। उसने कहा-"तो अपनी घृणा अपने तक ही परिमित नहीं रख सकती हो । किसी का अपमान करने में यदि आप को सुख मिलता हो, तो थोड़ी-सी दासियां मोल ले लीजिए । आज-कल तो वर्बर और यवन देश से बहुत-सी विकने आई हैं। ____धनदत्त ने कहा-"अर ! यह क्या तुम भूल गई हो कि जो लोग मेरे ग्राहक हैं, वे आदरणीय है। फिर यह भी..." "मैं जानती है, किन्तु दूसरो को भी जानना चाहिए । मैं सव का आदर करती है, इसका यह अर्थ नही कि मैं सबमे अनादर पाती रहूँ। मैं जा रही है, ब्रह्मचारीजी के गुरुदेव का दर्शन करने । रय के लिए कहला दीजिए।" मणिमाला उत्तेजित हो रही थी, कुछ तो ब्रह्मचारी की विलक्षण बातो से, कुछ-कुछ धनदत्त के उन स्त्रियों के प्रति आग्रह से । वह क्यो उन लोगों के प्रति इतना आवृष्ट है ? न लेगी तो क्या ? किन्तु धनदत्त इस समय अपना सम्मान खोना नही चाहता था। उसने कहा___ "विन्तु तुम भूल गई हो कि आज मरे यहाँ कुछ लोग निमत्रित हैं, और दे प्रतिष्ठित व्यक्ति हैं ! क्या उनका प्रवन्ध तुम कर चुकी हो ? जाना चाहो तो जा भी सकती हो, पर!" इरावती : ५०७