पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 3.djvu/५११

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लौट आया, उसके हाथ मे बूटी थी। धनदत्त ने पात्र उसके सामने रख दिया। ब्रह्मचारी दोनो बलिष्ठ हाथो से मसल कर उसमे से स्वरस निकालने लगा। रोगी के समीप आकर उसने धीरे-धीरे स्वरस उसके मुख मे टपकाना आरम्भ किया। अमृत-सी यह बूटी थी। पेट मे जाते ही रागी ने आँख खोल दी। उसने पूछा-मैं कहाँ हूँ?" "मित्रो मे, घबराओ मत ।" ब्रह्मचारी ने कहा। उस स्वर को जैसे रोगी न पहचाना । वह टक लगा कर देखन लगा । सहसा उसके मुंह से निकला "गुरुदेव !" "अग्निमित्र " "आर्य । बन्दीगृह से निकलने पर आप की प्रतीक्षा नित्य करता था ।" अग्निमित्र ने गद्गद कण्ठ से कहा । "शान्त हो, अवसर आने पर मैं स्वय मिल लूंगा। अभी तो तुम शीघ्र ही शिविर मे जाओ । लो यह गुटिका और मुंह में रख लो। तुम्हारा शैथिल्य नष्ट हो जायगा।" फिर हंसते हए चन्दन की ओर देखकर कहा-"ऐसे वैद्यो से सावधान रहना।" चन्दन कुछ वोलना ही चाहता था कि एक बैलगाडी और साथ मे शिविका भी उसी चैत्य-वृक्ष के नीचे आ पहुंची। शिविर मे स एक स्त्री निकल कर आलोक के समीप आ गई। उसने कहा--"हम लोग निराश्रय है। क्या यहाँ रात बिता सकने की आज्ञा मिल जायगी ?" अभी उसने वात भी पूरी न की थी कि घनदत्त दौडकर उसके पास पहुँचा। यह चीत्कार कर उठा-"मणिमाला ।" "स्वामी" कह कर वह धनदत्त के पैरा से लिपट गई। किन्तु धनदत्त उस फटकार कर कहा-"अविश्वासिनी । दूर" "क्यो?" "मैंने सुना था कि तू एक आजीवक के साथ कही चली गई।" "चली गई नही, चली आई कहिए। वह आजीवक भी साथ है, उन्ही की रक्षा में तो मैं जीवित रह सकी।" उसने गाडी की ओर देख कर पुकारा "आइए आर्य ।" गाडी से उतर कर एक आजीवक साधु आया । उसे देखते ही पहले आजीवक ने चिल्ला कर करा-"अरे मैं यह क्या देखता हूं? मेरे गुरुदेव ।" "धनदत्त । मैंने तुम्हारा कुछ लिया नहीं, यह सब लो। मैं अपनी नियति का भोग भोगने आगे बढता हूँ। आओ वत्स !" कहता हुआ दूसरे आजीवन का इरावती.