पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 3.djvu/४८०

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पुजारा सचमुच मरणासन्न था । उसक श्वास 41 वर्ग व रहा था। उसन ।स्यर दृष्टि से अग्निमित्र को दखा । उस दृष्टि म जिज्ञासा थी। अग्निमित्र न पूछा- 'कहिए, मैं आपको क्या सेवा करू? 'तुम विदेशी हो । मगध क ता नही जान पडत | उसन ठहरकर पूछा। "हाँ, मैं विदिशा का रहन वाला हूँ।' "तब ठीक है, तुम समय पर आ गय । गगाधर भगवान् की शपथ लकर तुम प्रतिशत हागे? "क्यो? "एक रहस्य का जानकर उस गुप्त करने क लिए । मै मर रहा हूँ। उस अब दुसर का बता देना आवश्यक है । आज अमावस्या है न ? वस ठीक है, समय हा चला है। -मरते हुए न साहस सकलित करके कहा। "विन्तु आप अपनी इस परिचारिका कालिन्दी का ही वया न बता द । मै यहाँ रहा न रहा, क्या ठिकाना | ~~-अग्निमित के इस कहन पर कालिन्दी प्रसन्न हो रही थी। "नही, स्त्री का वह रहस्य बताया नहीं जा सकता, निषेध है। फिर ता रही जायगा। -पुजारी क स्वर म निराशा थी। वह श्वास पीचन लगा। अग्निमिन न कालिन्दी की बार देखा, उसने भी जैसे स्वीकार कर लिया कि अग्निमित्र को ही यह भेद किसी प्रकार जान लना चाहिए। वह आँखो से ही सकेत करक हट गई। अग्निमित्र पुजारी के पास जाकर बैठ गया। पुजारी न कहा 'शपथ लो। "मैं शपथपूवक कहता हूँ कि वह रहस्य मै किसी को नही बताऊंगा । अग्निमित्र ने कहा। ___"हा, तो सुनो | यह लो ताम्रपत्र !" --पुजारी न सिरहाने स एक छाटा सा ताम्रपत्र निकाल कर दिया और कहने लगा--"मैं घडी भर म इस लोक को छोड दूंगा, भगवान् के प्रथम गणो में चला जाऊंगा। किन्तु यह ताम्रपत्र उस विश्व-विश्रुत नन्दराज की निधि की कुजी है, जिसक सम्बन्ध में लोग कहते ही हैं, जानत नही । प्रधान निधि तो नही, तुम्हे आवश्यकता के लिए बाहरी छोटी सी निधि मिलेगी। उसम से अपने व्यय क लिए और जब चाहे आवश्यकतामात्र दव-सवा के लिए ल सकते हो । नन्दी के सामने एक काला पत्थर है, जिस पर पट्कोण आकृति है, बीच में बिन्दु पर अंगूठा रखने से काम चल जायगा। -~~श्वास बढ़ने लगा । पुजारी रुक गया। ४६० प्रसाद वाङ्मय