पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 3.djvu/४७०

यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

________________

तुम्हारा उससे स्नेह था, वह तुम्हारा व्यक्तिगत स्वार्थ था। सार्वजनिक अन्याय समझ कर तुम उसका प्रतिकार नही कर रहे थे। और रही नैतिक समर्थन की वात, तो उपासना बाह्य आवरण है, उस विचार-निष्ठा का, जिसमे हमे विश्वास है। जिसकी दुख ज्वाला में मनुष्य व्याकुल हा जाता है, उस विश्व-चिता म मगलमय नटराज नृत्य का अनुकरण, आनन्द को भावना, महाकाल की उपासना का वाह्य स्वरूप है । और साथ ही कला की, सौदर्य को अभिवृद्धि है, जिमम हम बाह्य म, विश्व म, मौदर्य-भावना को सजीव रख सके है । परन्तु अब हम फिर से इसके लिए बल और स्फूर्तिदायक प्राचीन आर्य क्रियानो का पुनरुद्धार करना होगा । इस वौद्धिक दम्भ के अवसाद को आर्य जाति म हटाने के लिए आनन्द की प्रतिष्ठा करनी हागी। समझे । ___“किन्तु आय, मैं मन्दिर का पुजारी बन कर जीवित न रह सकूँगा । मुझे ऐमी आज्ञा न दीजिए।' ___नाव फिर से लौट कर भिक्षुणी-विहार के समीप आ गई थी। और मूर्यादय का आरम्भ था । अग्निमित्र न देखा कि इरावती ऊपर चक्रम पर खडा है, ठीक बुझते हुए तारा की तरह । इरावती न भी देखा । उसन पुकारा "अग्नि | - “मैं तुम्हारे साथ चलना चाहती हूँ। उस दिन मैन भूल का थी। ठहरा, नाव रोको।" ब्रह्मचारी क चुप रहन म अग्निमित्र ने नाव का घाट को आर बढाया। किन्तु विहार म इरावती के पोछ कई भिक्षुणियो माय दा सैनिक भी दिखाई पड। एक सैनिक न कहा- "इरावता । तुमको कुसुमपुर पहुँचा दन के लिए म आया हूँ। चलो। "क्या? "सम्राट की आज्ञा है। "मैं नहीं जाऊंगी?' 'ऐमा नही हो सकता । तुमका चलना पडगा। "मैंन क्या अपराध किया है। "यह हम लोग नही जानत, चलो'- यह कर वह सैनिक कुछ आग वड़ा। सहसा एक उन्माद नाच उठा । इरावतो शिप्रा म कूद पहो और अग्निमित्र भा। एक क्षण म अग्नि को वलिष्ठ भुजामा म इरावती जन क स्तर ऊसर दिघ. साई परो । ब्रह्मचारी न दाना का नाव पर उठा लिया। ऊपर म मनिसान ४५. प्रसार पारमय