पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 3.djvu/४६४

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वायु-वंग से जा पहुंचा । इरावती से उसने धीरे से कहा--"इरा । मैं हूँ, डरन की काई बात नहीं । मरे रहत तुम्हारा अनिष्ट नही हो सकता।' इरावती कृतज्ञता से उसको आर देख कर बाली-"धन्यवाद । अग्निमित्र । किन्तु मैं वन्दी होना चाहती हूँ। ब्रह्मचारी हंस पडा । अग्निमित्र सकाच मे गड-सा गया। उसकी कृपाण कटिबन्ध म चली गई। नतमस्तक वह खडा रहा । कुमारामात्य का साथी इरा वती को जव पकडकर ले चला, तब ब्रह्मचारी न धीरे से उसे अपनी ओर खीच लिया। बृहस्पति एठा हुआ उद्धत-भाव स दूसरी ओर दख रहा था । पलक मारते यह घटना हुई। सभा-मण्डप जन-शून्य हा गया। केवल कुमार के साथी और गर्भगृह के द्वार पर अग्निमित्र तथा ब्रह्मचारी खडे रहे। प्रादेशिक के आन तक सब मौन बने रह । केवल ब्रह्मचारी क नत्रा से उल्का की तरह एक ज्वाला निकलती और पिर अपने आप बुझ जाती थी। जैसे उसके हृदय को शीतलता पानी लकर खड़ी थी। प्रादशिक ने कुमार का नमस्कार किया । गर्वोद्धत कुमार बृहस्पति उचित उत्तर न देकर पूछ बैठा-"क्यो जी, तुमन धम-विजय को आयोजना और उसके सम्बन्ध में निकली हुई आज्ञाओ का अच्छी तरह पालन किया है ? देखता हूँ कि उज्जयिनी क प्रादशिक ने साम्राज्य का कवल नियमित कर भेज देना ही अपना कर्तव्य समझ लिया है। 'आय मै अपनी त्रुटि अभा तक नही समझ सका। -सविनय प्रादेशिक ने कहा। 'क्या समझागे | धम के नाम पर शील का पतन, काम-सुखो की उत्तेजना और विलासिता का प्रचार तुमको भी बुरा नही लगता न | स्वर्गीय दवप्रिय सम्राट अशोक का धर्मानुशासन एक स्वप्न नही था। सम्राट् उस धर्म-विजय को सजीव रखना चाहते है। किन्तु वह शासको की कृपा से चलने पावे तब तो। तुम्हारी छाया के नीचे ये व्यभिचार क अड्डे, चरित्र के हत्यागृह और पाखण्ड क उद्गम सबल है । और तुम आँखे बन्द किये निद्रा ले रहे हा । मैं किसी के धार्मिक कृत्य मे बाधा नहीं देना चाहता, किन्तु चारित्र्य विनाश और हिंसामूलक क्रियाओ का राकना मेरा कर्तव्य है । मै वेश्याओ से घिरी हुई देव-प्रतिमा स धृणा करता हूँ। यह शृङ्गार-लास्य धर्म है क्या ? ___अब ब्रह्मचारी स नही रहा गया। उसने कहा- धर्म क्या है और क्या नहीं है, यह महाकाल-मन्दिर का आचाय बौद्ध-धर्म-महामात्र स सीखना नही ४४२ प्रसाद वाडमय