पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 3.djvu/४५७

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यह कहकर राजो चली गयी, और मोहन माँ की गोद मे भयभीत हरिणशावक की तरह दुबक गया। तितली ने उसे कपडा ओढाकर अपने पास सुला लिया। वह भी चुपचाप पडा मां का मुंह देख रहा था । दीप शिखा के स्निग्ध आलोक म उसकी पुतली, सामना पड जाने पर, चमक उठती थी। तितली उसके शरीर को सहलाती रहो, और मोहन उसके मुंह का दखता ही रहा । सो जा बैटा । तितली ने कहा । नीद नही आ रही है। ~मोहन न कहा। उसकी आँखो मे जिज्ञासा भरी थी। क्या है रे ? --तितली ने दुलार से पूछा। माँ मैंने पेड के नीचे, शेरकोट के पास जो घाट पर बडा-सा पेड़ है उसी के नीचे आज संध्या को एक विचित्र । क्या तू डर गया है ? पागल कही का । नही, माँ, मैं डरता नहीं। पर शेरकोट के पास वह कौन बैठा था। मेरे मन मे जैसे बड़ा जैसे बडा, जैसा बडा | क्या बडे खायेगा ? तू भी कैसा लडका है । साफसाफ क्यो नहीं कहता? --तितली का कलेजा धक् धक् करने लगा। माँ, मै एक बात पूछू ? पूछ भी-तितली न उसके सिर पर हाथ फेरते हुए कहा । उसका पसीना अपने अचल से पोछ कर वह उसकी जिज्ञासा से भयभीत हो रही थी। मां। कह भी ! मुझे जीते-जी मार न डाल | मेरे लाल | पूछ । तुझे डर किस बात का है ? तेरी मा ने संसार में कोई ऐसा काम नहीं किया है कि तुझे उसके लिए लज्जित होना पडे। मा, पिताजी हाँ वेटा, तेरे पिताजी जोवित है। मरा सिन्दूर दखता नही ? फिर लोग क्यो ऐसा कहते है ? वेटा । कहने दे, मैं अभी जीवित हूँ। और मेरा सत्य अविचल होगा तो तेरे पिताजी भी आवेंगे। तितली का स्वर स्पष्ट था। मोहन को आश्वासन मिला। उसके मन में जैसे उत्साह का नया उद्गम हा रहा था । उसने पूछा-मां, हमी लोगा का शेरबोट हैन? तितली ४३