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बेटा, यही शेरकोट का खंडहर तेरे पिता को निर्वासित करने का कारण है। हाँ, यह खंडहर ही रहा ! न इस पर वक बना, न पाठशाला बनी। अपने भी उजडकर यह अभागा पड़ा है, और एक सुन्दर गृहस्थी को भी उजाड डाला । तो चाचा | कल से इसको बसाना चाहिए। यह बस जायगा तो पिताजी आ जायगे? कह नही सकता। तब आओ, हम लोग कल से इसमे लपट जायं । इधर तो स्कूल में गर्मी की छुट्टी है । दो-तीन घर बनाते कितने दिन लगगे। ___ अरे पागल । यह जमीदार के अधिकार में है | इसमे का एक तिनका भी हम छू नही सकते । हम तो छुएगे चाचा । देखो, यह वाम की कोठी है। मैं इसमे से आज ही एक फैन तोडता हूँ। -कहकर मोहन, रामजस के 'हाँ-हा' करने पर भी, पूरे बल स एक पतीली-सी वास की कैन तोड लाया । रामजस ने ऊपर स तो उसे फटकारा, पर भीतर वह प्रसन्न भी हुआ। उसने सन्ध्या की निस्तब्धता को आन्दोलित करते हुए अपना सिर हिलाकर मन-ही मन कहा-है तू मधुवन का बेटा। रामजस का भूला हुआ बल, गया हुआ साहस, लौट आया। उसने एक बार कधा हिलाया। अपनी कल्पना के क्षेत्र मे ही झूमकर वह लाठी चलाने लगा, और देखता है कि शेरकोट मे सचमुच घर बन गया । मोहन के लिए उसके बापदादा की डीह पर एक छोटा-सा सुन्दर घर प्रस्तुत हो ही गया । ___ अन्धकार पूरी तरह से फैल गया था। उसने उत्साह से मोहन का हाथ पकडहिला दिया, और कहा-चलो मोहन । अव घर चले। वे दानो धूमते हुए उसी घाट पर के विशाल वृक्ष के नीचे आये । उसके नीचे पत्थर पर एक मलिन मूर्ति का भ्रम मोहन को हुआ। उसने धीरे से रामजस से कहा-चाचा, वह देखो, कौन है ? रामजस न देखकर कहा होगा कोई, चलो, अव रात हो रही है । तेरी बुआ बिगडे गी। बुआ । वह तो वात-बात म बिगडती हैं। फिर प्रसन्न भी हो जाती है। हाँ, मां से मुझे । __ डर लगता है ? नहीं बेटा । तितली के दुखी मन म एक तेरा ही तो भरोसा है। वह बेचारी तुम्ही को देखकर तो जी रही है । हे भगवान् ! चौदह बरम पर तो रामचन्द्र जी वनवास शेलकर लौट आये थे। पर उस दुखिया का । ४३० : प्रसाद वाङ्मय