पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 3.djvu/४००

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है। वह एक क्षण तक चुपचाप खडे रहे । फिर दासी का बुलाकर धीरे से कहाकुछ और आढा दी । न जागे तो यहाँ आग भी सुलगा दो। देखा, परद ठीक से वाध देना । यहा गरम रहे, तुम्हारी मालकिन थक गई है। -फिर सोन चले गये। दूसरे दिन, वरकतअली ने स्टाम्प इन्द्रदेव के पास भेज दिया और बाहर मिलने की आशा मे बैठा रहा । जब बारह बजन लगा तब धबडा कर काठी के बाहर निकल आया और आम के पेड़ के नीचे बैठी हुई एक स्त्री से उसने कहामाँ जी । आज वैरिस्टर साहब एक काम में फंसे हुए हैं। आप जाइए, कल आपका काम हो जायगा । वह सिर झुकाये हुए बाली-कल कब आऊँ ? आठ बजे। तब मैं जाती हूँ--कहकर स्त्री धीरे से उठी और बंगले के बाहर हो गयी। अभी वह थोडी दूर सडक पर पहुँची होगी कि उसी फाटक से एक माटर उसके पीछे से निकली। उसका शब्द सुनकर, मोटर की आर देखती हुई, वह एक ओर हटी और उसन पहचान लिया, इन्द्रदव और शैला। उसन साहस से पुकारा-बहन शैला। किन्तु शैला ने सुना नहीं। इन्द्रदेव माटर चला रहे थे। वह करुण पुकार दाना के कान मे नही पड़ी। ___वह स्त्री धीरे धीरे फाटक म लोट आई, और आम के नीचे जाकर बैठ रही। शैला जब रजिस्ट्री पर गवाही करके इन्द्रदव के साथ उस वंगल पर लौटी, ता उसे न जाने क्यो मानसिक ग्लानि होने लगी। वह हाथ-मुंह पोछकर बगीचे मे घूमन के लिए चली । एक छोटा-सा चमली का कुन्ज था। उसम फूल नहीं थ। पत्तियां भी बिरल हो चली थी, वह रूखी-रूखी लता, लोहे के मोटे तारो से लिपट गई थी, तीव्र धूप म चाहे उसे कितना ही जलाता हो, फिर भी उसके निए वही अवलम्ब था । किरणें उसम सहज प्रवेश करके उस हंसाने का उद्योग कर रही थी। शैला उस निस्सहाय अवस्था को तल्लीन होकर देख रही थी। ___सहसा तितली ने उसके सामने आकर पुकारा वह्न । मैं कब स तुमका खोज रही हूँ। तुमको देखा और पुकारा भी, पर तुमने न सुना । सच है, ससार म सव मुंह माड लेते है । विपत्ति म किससे आशा को जाय । शैला ने घूमकर देखा । यह वही तितली है। कई पखवारो म ही वह कितनी दुर्बल और रक्त-शून्य हो गई है । जाँखे जैस निराशा-नदी के उद्गम-सी ३७६ . प्रसाद वाङ्मय