पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 3.djvu/३८८

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अमाघ अस्य था जिससे उसकी रक्षा हो सकती थी । उसका गौरव और अभिमान मानसिक भावना और वासना के एक ही झटके म, कितना जर्जर हा गया था । वही राजकुमारी | आज वह क्या हो रही है ? और चौवेजो कहा से यह दुष्ट-ग्रह के समान उसक सीधे-साद जीवन में आ गया ? अव वह भी अपना हाथ दिखा तो कितनी आपत्ति बढ़ेगी। साचते-साचते वह शिथिल हो गइ । महन्त चुपचाप चतुर शिकारी की तरह उसकी मुखाकृति की ओर ध्यान से देख रहा था। इधर राजकुमारी के मन में दूसरा झोका आया । कलक । स्त्री व लिए भयानक समस्या-मैं ही तो इस काण्ड की जड हूँ-उसने अपना मलिन और दयनीय चित्र अपने सामने देखा । आज वह उवर नही सक्ती थी। वह मुंह खालकर किसी स कुछ कहन जाती है, तो शक्तिशाली समर्थ पापी अपनी करनी पर हंसकर परदा डालता हुआ उसी के प्रवाद-मूलक कलक का घूघट धीरे से उधार देता है । ओह । वह आखा स आमू वहाती हुई बैठ गई। उसकी इच्छा हुई कि जैसे हा, जा कुछ भी करना पडे, मधुवन का इस बार बचा लेती । शैला के पास रुपया नही है, और वह मधुबन की सहायता करेगी ही क्यो । मधुबन कहता था कि उसने जाते-जाते लडाई-झगडा करन के लिए मना किया था। अब वह लज्जा से अपनी सब वात कहना भी नहीं चाहता। मेरा प्रसग वह कैसे कह सकता था। इसीलिए शेला की सहायता से भी वचित । अभागा मधुबन । राजकुमारी ने गिडगिडाकर कहा-~~सचमुच मरा ही सब अपराध है, मैं मर क्या न गई ? पर अव तो लज्जा आपक हाथ है। दुहाई है, मैं सौगन्ध खाता हूँ, आपका सब रुपया चुका दूगी। मरी हड्डी-हड्डी से अपनी पाई-पाई ले लीजियेगा । मधुबन न कहा ह कि वह पहले वाला एक सौ का दस्तावेज और पाच सौ यह, सब मिलाकर सूद-समत लिखा लीजिए। और जमानत म क्या दती हो? -कहकर महन्त फिर मुस्कराया। राजकुमारी ने निराश होकर चारों ओर देखा। उस एकान्त-स्थान में सन्नाटा था । महन्त क नौकर-चाकर खाने-पीने मे लगे थे । वहा किसी को अपना परि| चित न देखकर वह सिर झुकाकर बोली- क्या शेरकाट स काम न चल जायगा? नही जी, कह तो चुका, वह आज नहीं तो कल तुम लोगा के हाथ से निकला ही हुआ है । फिर तुम तो अभी कह रही थी कि मरी हड्डी से चुका लना । क्यो वह बात सच है ? ___अपनी आवश्यकता से पीडित प्राणी कितनी ही नारकीय यत्रणाएं सहता है । उसकी सब चीजो का सौदा मोल-तोल कर लेने मे किसा का रुकावट नही । तिस ३६२ प्रसाद वाङ्मय