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कच्ची सड़क के दोनों ओर कपड, बरतन, विसातयाना और मिठाइया को छोटी-बडी दूकाना से अलग, चूने से पुती हुई पक्को दोवारो के भीतर, विहारीजी का मन्दिर था। धामपुर का यही बाजार था। बाजार के वनिया की सेवा-पूजा स मदिर का राग-भोग चलता ही था, परन्तु अच्छी आय थी महन्त जी को मूद से। छोटे-छोटे किसानो की आवश्यकता जब-जब उन्ह सताती, वे लोग अपन खत बडो मुविधा के साथ यहाँ बन्धक रख देते थे। ___ महन्तजी मन्दिर से मिले हुए, फूलो से भर, एक सुन्दर बगीचे में रहते थे। रहने के लिए छोटा, पर दृढ़ता से बना हुआ, पक्का घर था। दालान मे ऊचे तकिये के सहारे महन्तजी प्राय बैठकर भक्तो की भेट और किसानो का सूद दोना ही समभाव से ग्रहण करते । जब कोई किसान कुछ भूद छोडने के लिए प्रार्थना करता तो वह बडी गम्भीरता से कहते-भाई, मेरा तो कुछ है नही, यह तो श्री बिहारीजी की विभूति है, उनका अश लेने से क्या तुम्हारा भला होगा? भयभीत किसान विहारीजी का पैसा कैसे दबा सकता था? इसी तरह कई छोटी-मोटी आस-पास की जमीदारी भी उनके हाथ आ गई थी। खेता की तो गिनती न थी। सन्ध्या की आरती हो चुकी थी। घटे की प्रतिध्वनि अभी दूर-दूर के वायुमडल मे गूंज रही थी। महन्तजी पूजा समाप्त करके अपनी गद्दी पर बैठे ही थे कि एक नौकर ने आकर कहा–ठाकुर साहब आए हैं। ठाकुर साहब | --जैसे चौककर महन्त ने कहा। हा महाराज | -अभी वह कही रहा था कि ठाकुर साहब स्वय आ धमके। लम्बे-चौडे शरीर पर खाकी की आधी कमीज और हाफ-पैण्ट, पूरा माजा और बूट, हाथ मे हण्टर । ___ इस मूर्ति को देखते ही महन्तजी विचलित हो उठे। आसन से थोडा-सा उठकर कहा ३५८: प्रसाद वाङ्मय