पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 3.djvu/३३५

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___ अच्छा | यह खिलवाड तुम्हे कैसे सूझा ? मैने तो नही, तुम इस मेरे धर्म-परिवर्तन का कोई दूसरा अर्थ न निकालो। इसका छ भी बोझ तुम्हारे ऊपर नही है । अवाक् होकर इद्रदेव ने शैला की ओर देखा। वह शान्त थी। इन्द्रदेव ने इस एकत्र करक कहा-तव जैसी तुम्हारी इच्छा । तुम भी सवेरे ही बनजरिया में आना । आओगे न ? __ आऊँगा । किन्तु मैं फिर पृछता हूं कि -यह क्यो? प्रत्यक जाति म मनुष्य को बाल्यकाल ही मे एक धर्म-सघ का सदस्य बना की मूर्खतापूर्ण प्रथा चली आ रही है । जब उसम जिज्ञासा नही, प्रेरणा नही, । उसके धर्म-ग्रहण करने का क्या तात्पर्य हो सकता है ? मै आज तक नाम के ए ईसाई थी। किन्तु धर्म का रूप समझ कर उस मैं अब ग्रहण करूंगी। चित्र पहल शुभ्र होना चाहिए नही ता उस पर चित्र बदरग और भद्दा होगा। हृदय का चित्रपट साफ कर रही हूँ-अपने उपास्य का चित्र बनाने के लिए। इद्रदव, उपास्य को जानने के लिए उद्विग्न हो गये थे। वह पूछना ही हते थे कि वीच मे टोककर शैला ने कहा-और मुझे क्षमा भी मॉगनी ह । क्सि बात की? ___ मै यहाँ बैठी थी, अनिच्छा से ही अकेले बैठे-बैठे तुम्हारी डायरी के कुछ पृष्ठ 5 लन का अपराध मैने किया है। तव तुमन पढ़ लिया ? अच्छा ही हुआ । यह रोग मुझे बुरा लग रहा थाहकर इन्द्रदेव न अपनी डायरी फाड डाली । किन्तु उपास्य को पूछने की बात उनके मन म दब गई । ___ दानो ही हंसकर बिदा हुए । तितली ३०७