पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 3.djvu/३३२

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सी पी है । किन्तु मेरे घर की स्थियां तो इस एकाधिकार के वातावरण मे मुझसे भी अधिक ! सम्मिलित कुटुम्ब केमे चल सकता है ? ___मुझे पुत्र-धर्म का निर्वाह करना है। मातृ-भक्ति, जो मुझमे सच्ची थी, कृत्रिम होती जा रही है। क्यो? इसी खीचा-तानी से । अच्छा तो मैं क्यो इतना पतित होता जा रहा हूं। मैंने वैरिस्टरी पास की है। मैं तो अपने हाय-पैर चला कर भी आनन्द से रह सकता हूं। किन्तु यह आर्थिक व्यथा ही तो नहीं रही। इसमे अपने को जब दूसरो के विरोध का लक्ष्य बना हुआ पाता हूँ, तो मन की प्रतिक्रिया प्रवल हो उठती है । तब पुरुष के भीतर अतीतकाल से सचित अधिकार का संस्कार गरज उठता है । और भी मेरे परिचय के सम्बन्ध में इन लागा को इतना कुतूहल क्यो? इतना विरोध क्यो ? मैं तो उसे स्पष्ट पड्यन्त्र कहूंगा। तो ये लोग क्या चाहती है कि बच्चा बना रहूँ। ___यह तो हुई दूसरी बात । हाँ जो दूसरे, अपने कहाँ ? अच्छा, अब अपनी बात । मैं किसी माली की सकरी क्यारी का कोई छोटा-सा पौधा होना बुरा नहीं समझता; किन्तु किसी की मुट्ठी मे गुच्छे का कोई सुगधित फूल नहीं बनना चाहता। प्राचीन काल में घरो के भीतर तो इतने किवाड नही लगते थे। उतनी तो स्वतन्त्रता थी । अब तो जगह-जगह ताले, कुण्डियां और अर्गलाएं ? मेरे लिए यह असह्य है। वडी-बडी अभिलापाएं लेकर मैं इगलैण्ड से लौटा था। यह सुधार करूंगा, वह करूंगा। किन्तु मैं अपने वातावरण में घिरा हुआ वेबस हो रहा हूँ। हम लोगो का जातीय जीवन सशोधन के योग्य नहीं रहा । धर्म और सस्कृति । निराशा की सप्टि है । इतिहास कहता है कि सशोधन के लिए इसमे सदैव प्रयत्ल हुआ है। किन्तु जातीय जीवन का क्षण वडा लम्बा होता है न । जहाँ हम एक मुधार करते हुए उठने का प्रयत्न करते है, वही कही अनजान मे रो-रुलाकर आंसुओ से फिसलन बनाते जाते हैं । जब हम लोग मन्दिर के सुवर्ण-कलश का निर्माण करते है, तभी उसके साथ कितने पीडितो का हृदय-रक्त उसकी चमक बढ़ाने मे सहायक होता है। तो भी आदान-प्रदान, सुख-दुख का विनिमय-व्यापार, चलता ही रहता है। मैं सुख का अधिक भाग तूं और दुख दूसरे के हिस्से रहे, यही इच्छा बलवती होती है। व्यक्ति को एट्टी नही। मुझे क्या करना होगा? मैं दुख का भी भाग और अनवरी- ३०४:प्रसाद वाङ्मय