पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 3.djvu/३१७

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कई बरसो से बराबर, बिना किसी दिन की बीमारी के, सदा प्रस्तुत रहने के रूप मे ही राजकुमारी कोदेखता आता था। किन्तु आज ? वह चौक उठा । उसने पूछा राजो ! पडी क्यो हो ? वह बोली नही । सुनकर भी जैसे न मुन सकी। मन-ही-मन सोच रही थी। ओह, इतने दिन बीत गये । इतने बरस । कभी दो घडी की भी छुट्टी नही । मै क्यो जगाई जा रही हूँ। इसीलिए न कि रसोई नही बनी है । तो मैं क्या रसोईदारिन हूँ । आज नही वनी—न सही। मधुबन दौड कर बाहर आया। बुढ़िया को खोजने लगा। वह भी नहीं दिखाई पड़ी। उसने फिर भीतर जाकर रसोई-घर देखा। कही धुएँ या चूल्हा जलने का चिह्न नही। बरतनो को उलट-पलट कर देखा । भूख लग रही थी। उसे थोडा-सा चवेना मिला । उसे बैठकर मनोयोग से खाने लगा। मन-ही-मन सोचता था—आज बात क्या है ? डरता भी था कि राजकुमारी चिढ न जाय । उसने भी मन मे स्थिर किया--आज यहां रहूंगा नही । मधुबन का रूठने का मन हुआ । वह चुपचाप जल पीकर चला गया। राजकुमारी ने सब जान-बूझकर—कहा हूँ। अभी यह हाल है तो तितली से ब्याह हो जाने पर तो धरती पर पैर ही न पडे गे। विरोध कभी-कभी बडे मनोरजक रूप मे मनुष्य के पास धीरे से आता है और अपनी काल्पनिक सृष्टि मे मनुष्य को अपना समर्थन करने के लिए बाध्य करता है—अवसर देता है-प्रमाण ढूंढ लाता है। और फिर, आँखो मे लाली, मन मे घृणा, लडने का उन्माद और उसका सुख-सब अपने-अपने कोनो से निकलकर उसके हाँ-मे-हाँ मिलाने लगते है। गोधूली आई । अन्धकार आया। दूर-दूर झोपडिया में दीये जल उठे । शेरकोट का खंडहर भी सार्य-सायें करने लगा। किन्तु राजकुमारी आज उठती ही नही । वह अपने चारो ओर और भी अन्धकार चाहती थी। तितली: २८६