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मुखदेव । क्तिने दिनो पर मेरा समाचार पूछ रहे हो, मुझे भी स्मरण नही, सब भूल गई हूं। कहने की कोई वात्त हो भी । क्या कहूँ। भाभी । मैं बडा अभागा हूँ। मैं तो घर से निकाला जाकर कष्टमय जीवन ही बिता रहा हूँ। तुम्हारे चले आने के बाद मैं कुछ ही दिनो तक घर पर रह सका । जो थोडा खेत बचा था उसे बन्धक रखकर बडे भाई के लिए एक स्त्री खरीद कर जव आई, तो मेरे लिए रोटी का प्रश्न सामने खडा होकर हंसने लगा। मैं नौकरी के बहाने परदेश चला । मेरा मन भी वहां लगता न था। गांव काटने दौडता था। कलकत्ता मे किसी तरह एक थेटर की दरवानी मिली । मैं उसके साथ बराबर परदेस घूमने लगा। रसोई भी बनाता रहा। हाँ बीच म मैं सग होने से हारमोनियम सीखता रहा । फिर एक दिन बनारस मे जब हमारी कम्पनी खेल कर रही थी, राजा साहब से भट हो गई । जब उन्हें सब हाल मालूम हुना, तो उन्होंने कहा -तुम चलो, मेरे यहाँ मुख से रहो । क्यो परदेस में मारे-मारे फिर रहे हो ? तब मै राजा साहब का दरबारी वना । उन्हे कभी कोई अच्छी चीज बनाकर खिलाता, ठढाई बनाता और कभी-कभी वाजा भी सुनाता। मेरे जीवन का कोई लक्ष्य न था। रुपया कमाने की इच्छा नही। दिन बीतने लगे । कभी-कभी, न जाने क्यो, तुमको स्मरण कर लेता । जैसे इस संसार मे राजकुमारी के नस नस म विजली दौडने लगी थी। एक अभागे युवक का -जो सब ओर से ठुकराये जाने पर भी उसको स्मरण करता था-रूप उसकी आँखो के सामने विराट होकर ममता के आलोक मे झलक उठा । वह तन्मय होकर सुन रही थी, जैसे उसकी चेतना सहसा लौट आई । अपनी प्यास बढाकर उसने पूछा- क्या मुखदेव । मुझे क्यो ? न पूछा भाभी । अपन दुख से जब ऊबकर मैं परदेस की क्सिी कोठरी म गाँव की बाते सोचकर आह कर बैठता था, तब मुझे तुम्हारा ध्यान बराबर हो आता । तुम्हारा दुख क्या मुझसे कम है ? और वाह रे निष्ठुर ससार । मै कुछ कर नही सकता था? वह क्यो? । सुखदेव । बस करो । वह भूख समय पर कुछ न पाकर मर मिटी है । उस 'जानन से कुछ लाभ नहीं । मुझे भी इस ससार में कोई पूछने वाला है, यह मैं नही जानती थी, और न जानना मेरे लिए अच्छा था। तुम सुखी हो । भगवान सबका भला कर। भाभी ? ऐसा न कहो । दा दिन क जीवन में मनुष्य मनुष्य को यदि नही पूछता-स्नह नही करता, तो फिर वह विसलिए उत्पन्न हुआ है । यह सत्य है कि सब ऐसे भाग्यशाली नही होते कि उन्हें कोई प्यार करे, पर यह तो हो सकता २८६ प्रसाद वाङ्मय