पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 3.djvu/२९८

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तो न सही-कहकर वह अपनी कमली मुट्ठियो मे दबाने लगा। शैला की एकग्रता भग हो गई। उसने पूछा--मधुबन, क्या हम लोगो को चलना चाहिए। रात बहुत हो चली, वह देखिए, सातो तारे इतने ऊपर चढ आये हैं। छावनी पहुँचते-पहुंचते हम लोगो को आधी रात हो जायगी। तव चलो-कहकर शेला निस्तब्ध टोले से नीचे उतरने लगी। मधुबन और रामजस उसके आगे और पीछे थे। वह यन्त्र-चालित पुतली की तरह पथ अतिक्रम कर रही थी, और मन मे सोच रही थी, अपने अतीत जीवन की घटनाएं । दुर्वृत्त पिता की अत्याचार-लीलाएं फिर माता जेन का छटपटाते हुए कप्टमय जीवन से छुट्टी पाना, उस प्रभाव की भीषणता में अनाथिनी होकर भिखमगा और आवारो के दल म जाकर पेट भरने की आरम्भिक शिक्षा, धीरे-धीरे उसका अभ्यास, फिर सहसा इन्द्रदेव से भेट–सन्ध्या के क्रमश प्रकाशित होने वाले नक्षतो की तरह उसके शून्य, मलिन और उदास अन्तस्तल के आकाश मे प्रज्वलित होने लगे। वह सोचने लगी नियति दुस्तर समुद्र को पार कराती है, चिरकाल के अतीत को वर्तमान से क्षण-भर में जोड देती है, और अपरिचित मानवता-सिन्धु मे से उसी एक से परिचय करा देती है, जिससे जीवन की अग्रगामिनी धारा अपना पथ निर्दिष्ट करती है । कहाँ भारत, कहाँ मैं और कहाँ इन्द्रदेव । और फिर तितली ! —जिसके कारण मुझे अपनी माता की उदारता के स्वर्गीय सगीत मुनने को मिले, यह पावन प्रदेश देखने को मिला। उसके मन म अनेक दुराशाएँ जाग उठी। आज तक वह सन्तुष्ट थी। अभावपूर्ण जीवन इन्द्रदेव की वृतज्ञता में आबद्ध और सन्तुष्ट था। किन्तु इस दृश्य ने उसे कर्मक्षेत्र मे उतरते के लिए एक स्पर्धामय आमत्रण दिया। उसका सरल जीवन जैसे धतुर और सजग होने के लिए व्यस्त हो उठा। ___वह कच्ची सडक से धीरे धीरे चली जा रही थी। पीछे से मोटर की आवाज सुन पडो । वह हटकर चलन लगी । किन्तु मोटर उसके पास आकर रुक गई। भीतर से अनवरी ने पुकारा-मिस शैला है क्या? हाँ। छावनी पर ही चल रही हैं न ? आइए न । धन्यवाद । आप चलिए, मैं आती हूँ।-अन्यमनस्क भाव से शैला ने कह दिया । पर अनवरी सहज म छोडने वाली नहीं । उसने अपने पास बैठे हुए कृष्णमोहन स धीरे स कहा- यह तुम्हारी मामी है, उन्ह जाकर बुला लो । २७० प्रसाद वाङ्मय