पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 3.djvu/२६

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का सुधार प्रसाद का लक्ष्य है । महात्मा गांधी को आवाज इस इकाई मे सुनायो पड़ती है। त्याग, तपस्या, संयम और साधना की प्रतिष्ठा उपन्यास मे पूर्णतः आदर्श वादी स्तर पर है । 'तितली' म शैला और तितली अपने-अपने ढग से इसे करते भी हैं । इन्द्रदेव इस सुधार के लिए लगभग गांधी जी की आवाज में ही बोसते हैं कि "मैं तो समझता हूँ कि गांवो का सुधार होना चाहिए । कुछ पढ़ेसिवे संपन्न और स्वस्थ लोगो की नागरिकता के प्रलोभनो को छोडकर, देश के गांवो मे विखर जाना चाहिए। उनके सरल जीवन मे-जो नागरिको के संसर्ग से विषाक्त हो रहा है। -विश्वास, प्रकाश और आनन्द का प्रचार करना चाहिए । उनके छोटे-छोटे उत्सवो मे वास्तविकता, उनकी खेती मे सम्पन्नता और चरित्र मे सुरुचि उत्पन्न करके उनके दारिद्रय और अभाव को दूर करने की चेष्टा होनी पाहिए। इसके लिए सम्पत्तिशालियो को स्वार्थ त्याग करना अत्यन्त आवश्यक (तितली, पृ० १६३) । सत्याग्रह युग का स्वप्न तितली में संघर्ष और विरोध के स्तर पर भी है और संगठन के स्तर पर भी है। प्रसाद का यह चित्रण महत्वपूर्ण और साकेतिक है तथा 'ककाल' की समस्याओ को समेटे हुए भी है । परन्तु प्रसाद की विशेषता प्रामीण यथार्थ के केवल समस्यात्मक पहलू--गलाजत और टूटन-को व्यक्त करने मे ही नहीं जीवन्त और मूल्यवान पहलू का सकेत करन मे भी है। गांव का सिवान, हरियाली और खेती बारी के साथ जिससे प्रसाद जी ग्रामीण गध विकसित करने में सफल हुए है, लोकगीतो और हंसी ठिठोली से एक भिन्न स्वरूप का भी चित्रण करते हैं । सम्बधो की पवित्रता, जैविक वासना, सहज आकर्षण, ऐय्याशी, स्वालम्बन, मानवीयता, लाठी-डडा और भाई-चारा के साथ-साथ "तितली' का गांव अपनी समप्रता से जीवित है । वस्तुतः प्रसाद की सरचना एक रेखीय नहीं है बल्कि चक्रीय है । तितली में भी वही चक्रीयता है, जो नियतिवादी भी है और भारतीय भी है। प्रसाद जी के उपन्यासो का महत्व अपने वर्तमान के सदर्भ मे तो है ही उससे अधिक है उपन्यास को प्रचार और कलामाध्यमो से भिन्न एक स्वतंत्र विधा के रूप में विकसित करने में-प्रयोग मे । महत्व और लघुत्व के सीमात का बोध रचना को चैलेंज प्रदान करता है और प्रसाद ने इस चैनेज को स्वीकार किया है। हिन्दी-विभाग इलाहाबाद विश्वविद्यालय इलाहाबाद -सत्यप्रकाश मिश्र ३० : प्रसाद वाड,मय