पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 3.djvu/२४२

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नही भाई ? इस समय श्रीचन्द्र बहुत-सा दान-धर्म करा रह है, हम तुम भी ता भिखमगे ठहरे-चलो न । ___टीन के पात्र म जल पीकर विजय उठ खडा हुआ । दाना चले । क्तिनी हो गलियों पार कर विजय और यमुना श्रीचन्द्र के घर पर पहुँचे । खुले दालान म किशोरी लिटाई गई थी। दान के सामान बिखर थे। श्रीचन्द्र माहन को लेकर दूसरे कमरे म जाते हुए वाले -यमुना। दखा, इस भी कुछ दिला दो। मरा चित्त घबरा रहा है, मोहन को लेकर इधर है, बुला लेना। ___और दो-तीन दासियाँ थी। यमुना न उन्ह हटन का सकत किया। उन सवन समझा-काई महात्मा आशीर्वाद दन आया है, वे हट गई । विजय किशोरी के पैरा के पास बैठ गया। यमुना न उसके काना म कहा-भैया आय किशारी ने आखे खाल दो। विजय न परा पर सिर रख दिया । विशारी क अग अव हिलत न थे। वह कुछ बोलना चाहती थी, पर आँखा स आँसू बहने लगे । विजय न अपन मलिन हाथो से उन्हे पोछा। एक वार किशारी न उस देखा, ऑखो न अधिक बल दकर दखा, पर वे आँख खुली रह गई। विजय फिर परा पर सिर रखकर उठ खडा हुआ। उसन मन-ही-मन कहा—मर इस दुखमय शरीर को जन्म देने वाली दुखिया जननी । तुमस उऋण नही हो सकता । वह जब बाहर जा रहा था, यमुना रो पड़ी, सब दौड आय । इस घटना का बहुत दिन बीत गय । विजय वही पड़ा रहता था। यमुना नित्य उसे रोटी दे जाती, वह निर्विकार भाव स उस ग्रहण करता । एक दिन प्रभात म जब उपा की लाली गगा क वक्ष पर खिलन लगी थी, विजय न ऑखे खोली। धीर से अपन पास से एक पत्र निकालकर वह पढन लगा-वह विजय के समान ही तो उच्छृखल है। अपन दाना पर तुम हँसोगी। किन्तु व चाह मेरे न हा, तब भी मुझ ऐसी शका हो रही है कि तारा ( तुम्हारी यमुना) की माता रामा स मरा अवैध सम्बन्ध अपन का अलग नही रख सकता। पढ़ते-पढते विजय की आँखो म आसू आ गये। उसने पत्र फाड कर टुकडटुकड कर डाला। तव भी वह न मिटा, उज्ज्वल अक्षरो स सूर्य की किरणा म जाकाश-पट पर वह भयानक सत्य चमकने लगा। उसकी धडकन वढ गई, वह तिलमिलाकर दखन लगा । अन्तिम सॉस म कोई आँसू बहानवाला न था, यह दखकर उस प्रसन्नता हुई। उसन मन-ही-मन कहा--इस अन्तिम घडी में ह भगवान् । मैं तुमको स्मरण करता हूँ, आज तक २१४ प्रसाद वाङ्मय