पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 3.djvu/२४१

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तुम्हे कुछ खान को मिला ? ~भालू ने जंभाई लेकर जीभ से अपना मुह पोछा फिर वगल मे सो रहा । दोना मित्र निश्चेष्ट सोने का अभिनय करने लगे। एक भारी गठरी लिये दूसरा भिखमगा आकर उसी जगह सोये हुए विजय का घूरन लगा । अन्धकार म उसकी तीव्रता देखी न गई पर वह बाल उठाक्यो बे वदमाश | मेरी जगह तून लम्बी तानी है ? मारूँ डण्डे से तरी खोपडी फूट जाय । उसने डण्डा ताना ही था कि भालू झपट पडा। विजय ने विकृत कण्ठ स कहा-भानू । जाने दो यह मथुरा का थानेदार है घूस लेने के अपराध म जेल काटकर आया है यहा भी तुम्हारा चालान कर देगा तव ? __ भालू लौट पडा और नया भिखमगा एक बार ही चौक उठा-कौन है र ? -कहता वहाँ स खिसक गया । विजय फिर निश्चित हो गया। उसे नीद आन लगी थी। पैरो म सूजन थी पीडा थी, अनाहार स वह दुबल था। एक घण्टा बीता न होगा कि एक स्त्री आई उसने कहा-भाई । वहन । --कहकर विजय उठ बैठा । उस स्त्री ने कुछ रोटियों उसके हाथ पर रख दी। विजय खाने लगा। स्त्री न कहा-मेरा नौकरी लग गई माई । अव तुम भूखे न रहोगे। कहाँ बहन ? –दूसरी रोटी समाप्त करत हुए विजय ने पूछा । श्रीचन्द्र के यहा। विजय के हाथ स रोटी गिर पडी । उसने कहा-तुमने आज मेरे साथ बडा अन्याय किया बहन । क्षमा करो भाई । तुम्हारी माँ मरण-सज पर है तुम उहे एक बार दखोगे ! विजय चुप था। उसके सामने ब्रह्माण्ड धूमने लगा। उसने कहा-मामरण-सेज पर । दखूगा यमुना ? परन्तु तुमन । मैं दुर्बल हूँ भाई । नारी-हृदय दुर्बल है मै अपन को न राक सकी । मुझे नौकरी दूसरी जगह मिल सकती थी, पर तुम न जानत होग कि श्रीचर का दत्तक पुत्र मोहन का मरी कोष से जम हुआ है । क्या। हाँ माइ । तुम्हारी बहन यमुना का वह रक्त है, उसकी कथा फिर मुना ऊँगी। बहन ! तुमने मुझ बचा लिया । अव में माहन का रोटी सुख से खा सकूगा। पर मां मरण-सेज पर तो मैं चलू कोइ घुसन न द तब । ककाल २१३