पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 3.djvu/२३५

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किशोरी सन्तुष्ट न हो सकी। कुछ दिनो के लिए वह विजय को अवश्य भूल गई थी, पर मोहन को दत्तक ले लेने से उसको एकदम भूल जाना असम्भव था। हाँ, उसकी स्मृति और भी उज्ज्वल हो चली। घर के एक-एक कोने उसकी कृतिया से अकित थे। उन सबो ने मिल कर किशोरी की हंसी उडाना आरम्भ किया। एकान्त में विजय का नाम लेकर वह रो उठती। उस समय उसके विवर्ण मुख को देखकर मोहन भी भयभीत हो जाता। धीरे-धीरे मोहन के प्यार की माया अपना हाथ किशोरी की ओर से खीचने लगी। किशोरी कटकटा उठती, पर उपाय क्या था, नित्य मनोवेदना से पीडित होकर उसने रोग का आश्रय लिया । औषधि होती थी रोग की, पर मन ता वैमा हो अस्वस्थ था। ज्वर ने उसके जर्जर शरीर में डेरा डाल दिया ! विजय को उसने भूलने की चेष्टा की थी। किमी मीमा तक वह सफल भी हुई, पर वह धोखा अधिक दिन तक नही चल सका। ___मनुष्य दूसरे को धाखा दे सकता है, क्योकि उमसे सम्बन्ध कुछ ही समय के लिए होता है, पर अपने से, नित्य महचर स, जो घर का सव कोना जानता है, कब तक छिपेगा। किशोरी चिर-रोगिणी हुई। एक दिन उसे एक पत्र मिला। वह खाट पर पड़ी हुई अपन रूखे हाथो से उसे खोलकर पढन लगी "किशोरी, ससार इतना कठोर है कि वह क्षमा करना नही जानता और उसका सबसे वडा दड है-'आत्म दर्शन ' अपनी दुर्बलता, जब अपराधो की स्मृति बनकर डक मारती है, तब वह कितना उत्पीडनमय होता है | उम तुम्हे क्या समझाऊँ मेरा अनुमान है कि तुम भी उसे भोगकर जान सको हो । मनुष्य के पाम तर्कों के समर्थना का अस्त्र है, पर कठोर सत्य अलग खडा उसकी विद्वत्तापूर्ण मूर्खता पर मुस्कुरा देता है । यह हमी शूल सी भयानक, ज्वाला से भी अधिक झुलसानवाली हाती है । ककाल २०७