पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 3.djvu/२२०

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अपने को इस सम्बन्ध म बदनाम होन स बचाना चाहता था। वह प्रचारक बन गया था। इधर आश्रम में लतिवा, सरला, घण्टी और नन्दा के साथ यमुना भी रहन लगी, पर यमुना अधिक्तर कृष्णशरण को सवा में रहती। उनकी दिनचया बडी नियमित थी। वह चाची से भी नही बोलती और निरजन उसके पास ही जान म सकुचित होता। भडारीजी का ता साहस ही उसका मामना करन का न पाठक आश्चर्य करगे कि घटना-सूत्र तथा सम्बन्ध म इनने समीप में मनुष्य एकत्र होकर भी नुपचाप कैस रहे ? लतिका और घटी का वह मनामालिन्य न रहा, क्याकि अब वाथम से दोना ___ का कोई सम्बन्ध न रहा । नन्दो चाची ने यमुना के साथ उपकार भी किया था और अन्याय भी। यमुना के हृदय म मगल के व्यवहार की इतनी तीव्रता थी कि उसने सामने और किसी के अत्याचार परिस्फुटित हो नहीं पात । वह अपन दुख-सुख में किसी को साझीदार बनाने की चेष्टा न करती। निरजन मन में सोचता-मैं वैरागी हूँ। मेरे शरीर स सम्बन्ध रखने वाले प्रत्येक परमाणुओ को मर दुष्कर्म के ताप से दग्ध होना विधाता का अमोघ विधान है, यदि सब वात खुल जायें, तो यह सताई हुई स्नी और भी विरक्ति के नीच पिसन लग जाय और फिर मैं यहाँ खडा हूँगा । यह आश्रम मुझे किस दृष्टि से देखगा । नन्दो मोचती-यदि मैं कुछ भी रहती हूँ तो मेरा ठिकाना नही, इसलिए जो हुआ, सो हुआ, अब इसम चुप रह जाना ही अच्छा है । मगल और यमुना आप ही अपना रहस्य खोले, मुझे क्या पडी है । ____ इसी तरह निरजन नन्दो और मगल का मौन भय, यमुना के अदृष्ट अन्धकार का सृजन कर रहा था। मगल का सार्वजनिक उत्साह यमुना के सामन अपराधी हो रहा था। वह अपन मन को सान्त्वना देता कि इसम मरा क्या अन्याय है-जव उपयुक्त अवसर पर मैंन अपना अपराध स्वीकार करना चाहा, तभी तो यमुना ने मुझे वजित किया तथा अपनी और मेरा पथ भित-भिन्न कर दिया। इसके हृदय म विजय के प्रति इतनी सहानुभूति कि उनके लिए फांसी पर चढना स्वीकार 1 यमुना से अव मेरा कोई सम्बन्ध नही । -वह उद्विग्न हो उठता । सरला दूर स उनके उद्विग्न मुख को देख रही थी। उसने पास आकर कहा- अहा, तुम इन दिनो अधिक परिश्रम करते-करते थक गये हो । नही माता, सेवक को विधाम कहाँ ? अभी तो आप लोगो के सघ-प्रवेश का उत्सव जब तक समाप्त नही हो जाता, हमको एट्टी कहाँ । १६२ प्रसाद वाङ्मय