पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 3.djvu/२२

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उसके सगठन में शौल वैविध्य का प्रयोग होते हुए भी निश्वित आदशों की हो स्थापना की गई है। कपा के भीतर कथा का प्रयोग कंकाल और तितली मे समान्तरित है । देवनन्दन और शबनम की कथाएं विपाद प्रस्त हैं। इन दोनो हो कथाओं का प्रयोग भारतीय साहित्य को परम्परा का उपन्यास के पश्चिमी रचना विधान में एक प्रयोग कहा जा सकता है और निश्चय ही यह प्रयोग मूल कथा की वेदना को अधिक गहराता ही है। अन्तर्वैयक्तिक वेदनाओ के एकत्र संघटन से ही इन उपन्यासो का पूजन हुआ है । काल वैचित्र्य और व्यक्ति वैचिश्य की दृष्टि से ककाल बेहतर है जब कि तितली का कथानक चन्द्रगुप्त की तरह से निश्चयात्मक है। उपन्यास का जीवन अभिनेताओ के कारण है। उपन्यास मे पात्रात्मकता कथा वैचित्र्य और शिल्प की दृष्टि से ठीक होती है परन्तु एक प्रकार को निर्जीवता भी उत्पन्न करती है। नाटकीयता के प्रयोग वा एक लाभ अवश्य है कि उपन्यासो मे अन्तर्व्यथा भी साकेतिक हो सकी है । उपन्यास मैथिलीशरण के महाकाव्यो की तरह केवल घटनाओ के प्रवाह नहीं लगते हैं, बल्कि उनमे व्यक्तियो की पोहा और मनोव्यथा का भी असर है। यह मनोव्यथा वर्णन से नहीं बल्कि उपन्यास की बनावट का अग बनकर आती है, कथ्य के भीतर निबद्धमान संकेतो और सूचनाओ से प्रतीत होती है। यह प्रतीति प्रसाद के उपन्यासों की वह विशेषता है जो जेनेन्द्र और अज्ञय में पायी जाती है । अन्तर केवल इतना है कि प्रसाद मे बाहरी यथार्थ को फाक से वह छाया-वेदनाझलकती है जब कि जैनेन्द्र और अज्ञेय मे भीतरी दुनिया को फाक से बाहरी दुनिया झलकती है । 'हम हैं इसलिए दुनिया है' का मुहावरा प्रसाद के बाद का है यद्यपि मुझे वह प्रसाद का ही प्रसार लगता है। प्रसाद का आधार है कि मैं और जगत दोनो ही स्वतन्त्र सत्ताएं हैं परन्तु दोनो से परे भी एक सता है जिसके कारण ही ये सत्ताएं हैं। यानी जो कुछ भी व्यक्त है वह अव्यक्त के कारण । और यही कारण है कि आस्तिकता और नियतिवादिता उनकी सभी कृतियो मे प्रतिफलनात्मक तत्त्व के रूप में पाये जाते हैं। विषमता प्रसाद जी के लिए वास्तविकता है कामायनो मे ही नहीं उपन्यासो में भी और समता एक मूल्य है। परन्तु इस 'समता' को उनको व्याख्या शील को एक गुण और वैयक्तिकता को आदर्श का प्रमुख आधार मानकर चलती है। इसलिए प्रसाद की समाज को परिभाषा अन्तर्वैयक्तिकता को आधार मानती है। आत्मशुद्धि और आत्मनिरीक्षण के अतिरिक्त वे स्वतन्त्रता को इसी अर्थ मे एक मूल्य मानते हैं । प्रजातात्रिक प्रणाली का कोई सीधा उल्लेख प्रसाद ने कहीं नही किया है। जिस प्रकार की ग्राम स्वराज्य को वे कल्पना करते हैं वह तितली का २६: प्रसाद वाङ्मय