पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 3.djvu/२१६

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गाला ने बदन का शव-दाह किया। वह बाहर ता खुलकर रोती न थी, पर उमर भीतर की ज्वाला का ताप उसको आरक्त आया में दिखाई देता था । उसन चारा आर सूना था। उसने नय से कहा-मैं ता यह धन का सन्दूक न ल जा सकूँगी, तुम इस ले लो। नय न रहा--भला मैं क्या करूंगा गाला | मरा जीवन ससार क भीषण वालाहल स, उत्सव स और उत्साह स ऊब गया है। अब तो मुझे भीख मिल जाती है। तुम तो इसस पाठशाला की सहायता पहुंचा सक्ती हो । मैं इस वहाँ पहुंचा द सकता है। फिर वह सिर झुकाकर मन-ही-मन सोचने लगा-जिसे मैं अपना कह सकता था, जिस माता-पिता समझता था, व ही जब अपन नही तो दूसरा को क्या । गाला न देखा, नय के मन म एक तीव्र विराग और वाणी म व्यग है । वह चुपचाप दिनभर खारी के तट पर बैठी हुई मोचती रही। सहसा उसने घूमकर देखा, नय अपन कुत्ते के साथ कम्बल पर बैठा है। उसने पूछा-तो नय । यही तुम्हारी सम्मति है न । हाँ, इसस अच्छा इसका दूसरा उपयोग हो ही नहीं सकता। और, यहाँ तुम्हारा अकले रहना ठीक नही । --नये न पहा । हाँ पाठशाला भी मूनी है-मगनदव वृन्दावन की एक हत्या म फंसी हुई यमुना नाम की एक स्त्री क अभियाग को दख-रेख करने गये है, उन्हें अभा कई दिन लगगे। बीच ही म टोककर नये न पूछा-क्या कहा । यमुना ? वह हत्या म फंसी हाँ, पर तुम क्या पूछत हो? मैं भी हत्यारा हूँ गाला, इसी स पूछता हूँ। फैसला किस दिन होगा ? कब तक मगलदव आवगे? परसा न्याय का दिन नियत है।-गाला न कहा । __तो चलो, आज ही तुम्ह पाठशाला पहुंचा दूं। अब यहाँ रहना ठीक भी नही। अच्छी बात है जाओ, वह सन्दूक लते आआ। नये अपना कम्बल उठाकर चला । और, गाला चुपचाप सुनहली किरणा को खारी के जल म बुझती हुई देख रही थो-दूर कर एक स्यार दौडा हुआ जा रहा था। उस निर्जन स्थान म पवन रुक-रुक पर बह रहा था। खारी बहुत धीरे-धीरे अपने करुण प्रवाह म बहती जाती थी, पर जैसे उसका पति स्थिर १८८ प्रसाद वाङ्मय