पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 3.djvu/१९६

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। 'राम एक तापस तिय तारी। - नाम कोटि खल कुमति सुधारो॥ " वापस-तिय तारा-गौतम की पत्नी जहल्या का अपनी लीला करत समय भगवान् न तार दिया। वह योवन के प्रमाद स, इन्द्र क दुराचार स, छली गई। उसने पति स-इरा लोक के दवता स--छल किया। वह पामरी इस लाक क सबश्रेष्ठ रल सतीत्व स वचित हुई । उसके पति न शाप दिया, वह पत्थर हा गई । वाल्मीकि न इस प्रसग पर लिखा है --वातभक्षा निराहारा तप्यन्ती भस्मशायिनी। ऐसी कठिन तपस्या करते हुए पश्चात्ताप का अनुभव मरत हुए वह पत्थर नहीं तो और क्या थी ! पतितपालन न उस शाप विमुक्त किया । प्रत्यक पापो के दण्ड की सीमा होती है। सव काल म अहल्या-सी स्त्रिया तहान को सम्भावना है, ययाकि कुमति ता वची है, वह जब चाह किसा का अहल्या बना सकता है। उसके लिए उपाय ह-भगवान् का नाम-स्मरण | आप लाग नामस्मरण का जभिप्राय यह न समझ ल नि राम-राम चिल्लाने स नाम-स्मरण हा गया 'नाम निरूपन नाम जतन से । सो प्रकटत जिमि मोन रतन त । इस राम शब्दवाची उस अखिल ब्रह्माण्ड म रमण करन वाले पतितपावन को सत्ता का सवय स्वीकार करत हुए सर्वस्व समर्पण करनवान) भक्ति के साथ उसका स्मरण करना हा यथाथ में नाम-स्मरण है | वैरागी न कथा समाप्त की । तुलसी बटी। सब लोग जान लगे। नीचन्द्र भी चलने के लिए उत्सुक था, परन्तु किशारी का हृदय काँप रहा था अपनी दशा पर, और पुलकित हो रहा था भगवान की महिमा पर ।,उसन विश्वासपूर्ण नेना से देखा कि सरयू प्रभात के तीव्र जालोक म लहरातो हुई वह रही है। उस साहस हो चला था । आज उसे पाप और उमस मुक्ति का नवीन रहस्य प्रतिभा सित हो रहा था। पहली ही बार उसस अपना अपराध स्वीकार किया और यह उसके लिए अच्छा अवसर था कि उसी क्षण उस उद्धार को भी आशा थी। वह व्यस्त हा उठी। पगली जब स्वस्थ हो चली थी। विकार ता दूर हो गय थ किन्तु दुर्बलता वनी थी। वह हिन्दूधर्म की आर अपरिचित कुतूहल स दखन लगा था, उसे वह मनोरजक दिखाई पड़ता था। वह भी चाची के साथ थीचन्द्र वाले घाट सा दूर बैठी हुई, सरयू-तट का प्रभात और उसमे हिन्दूधम के आलोक को सकुतूहल दख रही थी।। १६. प्रसाद याडमय