पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 3.djvu/१८

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बीज है। समाजवाद और प्रजातन दोनो से भिन्न एक मार्ग की घोज लगभग सर्वोदय के स्तर को प्रसाद मे पायी जाती है । मेरी राय मे ता वे पहले सर्वोदयी हैं । ककात, तितलो और कामायनी म एक प्रकार का सर्वोदयत्व पाया जाता है जो भौतिकता और आध्यात्मिकता को मिलावट का परिणाम है। निम्नलिषित उतरणा से यदि कामायनी के इडा, संपर्प और आनन्द आदि सगो की तुलना जाय तो मेरी धारणा स्पष्ट हो जायगी। इन उदरणो का प्रसाद के उपन्यासों के रचना विधान की दृष्टि से ही नही बल्कि १६२५ के बाद की उनको अधिकांश रचनाओ की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण माना जा सकता है । सासारिक वास्तविकता का उदाहरण में पहल भी कई दे चुका है। कुछ उदरण विस्तार से देकर अपनी बात प्रसाद के सदर्भ म ही नहीं बल्कि छायावादी दौर के सभी रचनाकारा-रामचन्द्र शुक्ल, प्रेमचन्द, जैनेन्द्र और अजेय आदि तर्कश इसी दौर के लगते हैं-की सूजनशोल रूढ़ियो और जीवन जगत के प्रति एक संभव हस का संकेत भी करना चाहता हूँ। प्रसाद के माध्यम से यह इसलिए व्यक्त किया जा सकता है कि प्रसाद अपने समय के एकमात्र रचनाकार है जो सभाबना के छोर पर पहुँच कर मानव भविष्य की चिता करत हैं और एक निष्कर्ष प्रस्तुत करते हैं। "मैं, सोचता है कि मेरा सामाजिक बन्धन इतना विश्वल है कि उसमे मनुष्य केवल ढोगी बन सकता है । दरिद्र किसानो से अधिक से अधिक रस सूसकर एक धनी थोरा-सा दान कही कही दया और कभी-कभी छोटा-मोटा उपकार-फरके, सहज मे हो आप जैसे निरीह लोगो का विश्वास-पात्र बन सकता है । सुना है कि आप धर्म मे प्राणिमात्र की समता देवत हैं, किन्तु वास्तव में कितनी विषमता है। सब लोग जीवन मे अभाव-ही-अभाव देख पाते । प्रेम का अभाव, स्नेह का अभाव धन का अभाव, शरीर-रक्षा को साधारण मावश्यकताओ का अभाव, दुख और पीडा यहो तो चारा ओर दिखायी पड़ता है। जिसको हम धर्म या सदाचार कहते है वह भी शान्ति नहीं देता । सबमे बनावट सबमे छल प्रपच ! मैं कहता हूँ कि आप लोग इतने दुखी हैं कि थाडी-सी सहानुभूति मिलते ही कृतज्ञता नाम की दासता करने लग जाते हैं । इसस तो अच्छी है पश्चिम को आपिक या भौतिक समता, जिसमे ईश्वर के न रहने पर भी मनुष्य की सब तरह को मुविधाओ की भोजना है।" (तितली, पृ० १०३)। "मैं समझ रहा हूँ कि आप व्यावहारिक समता खोजते हैं, किंतु उसकी आधार शिला तो जनता की सुख समृद्धि ही है न । जनता को अर्थ प्रेम की शिक्षा देकर उसे पशु बनाने की चेष्टा अर्थ करेगी । उसमे ईश्वर भाव का आत्मा का निवास २२ प्रसाद वाङ्मय