पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 3.djvu/१७९

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मां शवनम चावल फटक रही थी और मै बैठी हुई अपनी गुडियाँ खेल रही थी। अभी सध्या नहीं हुई थी। मेरी मां ने कहा-वानो, तू अभी खेलती ही रहेगी, आज तूने कुछ भी न पढा ।---रहमतखां मेरे नाना ने कहा- शवनम, उसे खेल लेने दे वेटो; खेलने के दिन फिर नही आते-मै यह सुनकर प्रसन्न हो रही थी, कि एक सवार नगे सिर अपना घोडा दौडता हुआ दालान के सामने आ पहुंचा और उसने बडी दीनता से कहा-मियां रात-भर के लिए मुझे जगह दो, मेरे पोछे डाकू लगे है ! ___रहमत ने धुआं छोड़ते हुए कहा~~भई, थके हो तो थोडी देर ठहर सकत हो; पर डाकुओ से तो तुम्हे हम बचा नहीं सकते । ___यही सही-कहकर सवार घोडे से कूद पडा । मै भी बाहर ही थी, कुतूहल से पथिक का मुंह देखने लगी। वाध की खाट पर वह हाफते हुए बैठा । सध्या हो रही थी। तेल का दीपक लेकर मेरी माँ उस दालान मे आई। वह मुंह फिराये हुए दीपक रखकर चली गई। सहसा मेरे वुड्ढे नाना का जैसे पागलपन हो गया, खडे होकर पथिक को घूरने लगे। पथिक ने भी देखा और चौककर पूछा-रहमत ! यह तुम्हारा ही घर है ? हाँ मिरजा साहब ! इतने में एक और मनुप्य हॉफता हुआ आ पहुँचा, वह कहन लगा---सब उलट-पलट हो गया। मिरजा ! आज देहली का सिंहासन मुगलो के हाथ से वाहर है । फिरगी की दोहाई है, कोई आशा न रही । मिरजा जमाल मानसिक पीडा से तिलमिलाकर उठ खडे हुए, मुट्ठी बोधे टहलने लगे और वुड्ढा रहमत हवबुद्धि होकर उन्हें देखने लगा । भीतर मरी माँ यह सब मुन रही थी, वह बाहर झांककर देखने लगी। मिरजा की आँसे क्रोध से लाल हो रही थी। तलवार की मूठो पर, कभी मूछो पर, हाथ चचल हो रहा था। सहसा वे बैठ गये और उनकी आँखो से आँसू की धारा वहने लगी। वे बोल उठे-मुगलो की विलासिता ने राज को खा डाला । क्या हम सब वावर को सतान हैं ? आह ! ____ मेरी मां बाहर चली आई । रात की अधेरी बढ रही थी। भयभीत हाफर यह सब आश्चर्यमय व्यापार देख रही थी! मां धीरे-धीरे आकर मिरजा के सामने खड़ी हो गई और उनके आंसू पोछने लगी । उस स्पर्श से मिरजा के शोक की ज्वाला जव शान्त हुई, तब उन्होन क्षीण स्वर मे कहा-~शवनम ! वह बड़ा करुणाजनक दृश्य था । मेरे नाना रहमतखां ने कहा-आओ सोमदेव ! हम लोग दूसरी कोठरी में चले। वे दोना चले गये । मैं चुप बैठी थी। कंकाल : १५१