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शासन कहते हैं। प्रणयी यौवन म सुनहरा पानी देखते हैं, जौर माता अपने बच्चे के सुनहले वालो के गुच्छो पर सोना लुटा देती है । यह कठोर, निर्दय, प्राणहारी पीला सोना ही ता साना नही है । —सोमदेव न कहा । सोमदेव | कठोर परिश्रम से, लायो वरस स, नय-नये उपाय से, मनुष्य पृथ्वी से सोना निकाल रहा है, पर वह भी किसी-न-किसी प्रकार फिर पृथ्वी म जा घुसता है । मैं सोचता हूँ कि इतना धन क्या होगा । लुटाकर दखू ? सर तो लुटा दिया, अव कुछ कोप मे है भी। क्या! -आश्चय से मिरजा ने पूछा। सचित धन अब नहीं रहा । क्या वह मब प्रभात के झरते हुए ओस की बूदो में अरुण किरणो की छाया थी । और, मैंने जीवन का कुछ मुख भी नही लिया । सरकार | सब मुख सब के पास एक माथ नही आत, नहीं तो विधाता को मुख बांटन म वडी बाधा उपस्थित हो जाती । चिढकर मिरजा न कहा-जाओ । सोमदेव चला गया, और मिरजा एकान्त म जीवन की गुत्थियो का सुलझाने लगे । वापी के मरकत जल का निनिमेप देखते हुए वे मगमर्मर के उसी प्रकोष्ठ के समान निश्चेप्ट थे, जिसमे बैठे थे। नूपुर को इनकार ने स्वप्न भग कर दियादेखो तो इस हो क्या गया है, बालता नही क्यो । तुम चाहो तो यह वाल ए । इसका पिंजडा तो तुमन सोने से लाद लिया है | मलका | बहत हो जान पर भी सोना-सोना ही है । ऐमा दुरुपयोग । तुम इसे देखो तो, क्यो दुखी है ? ले जाओ, जब मैं अपने जीवन के प्रश्ना पर विचार कर रहा हूँ, तर तुम यह खिलवाड दिखाकर मुझे भुलवाना चाहती हो । ___ 'मैं तुम्ह भुलवा सकती हूँ ।' -मिरजा का यह रूप शबनम ने कभी नही देखा था । वह उनके गर्म आलिंगन, प्रेम-पूर्ण चुम्वन और स्निग्ध दृष्टि स सदैव ओत-प्रोत रहती थी--आज अचानक यह क्या । ससार अब तक उसके लिय एक मुनहली छाया और जीवन एक मधुर स्वप्न था । खजरीट मोती उगलने लगे । मिरजा को चेतना हुई—इसी शवनम को प्रसन करन के लिए तो वह कुछ विचारता-सोचता है, फिर यह क्या ! यह क्या-मरी एक बात भी यह हंसकर नही उडा सकती, झट उसका प्रतिकार | उन्हाने उत्तेजित हाकर कहा १४८ प्रसाद वाङ्मय