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फतहपुर सोकरी स अछनरा जाने वाली सडक क मन अचल म एक छोटासा जगल है। हरियाली दूर तक फैली हुई हैं । यहाँ खारी नदी एक छोटी सी पहाडी से टकराती हुई बहती है। यह पहाडी सिलसिला अछ्नग और सिंघापुर के बीच म है । जनसाधारण उस सून कानन म नहीं जाते। कही-कही बरमाती पानी बहने क सूख नाल अपना जर्जर कलवर फैलाय पडे है । वीच बीच म ऊपर के टुकडे निर्जल नालो स सहानुभूति करते हुए दिखाई द जात हे । कवल ऊंचीऊँची टेकरियो से उसकी बस्ती बसी है । वृक्षो के एक घने झुरमुट म लता-गुल्मा से ढंकी एक मुन्दर झोपडी है । उसम कई विभाग हैं । बडे-वडे वृक्षो क नीचे पशुओ क झुड बंध है, उनम गाय, भैंस और घोडे भी है। तीन-चार भयावन कुत्त अपनी सजग आखा स दूर-दूर बैठे पहरा दे रह है। एक पूरा पशु-परिवार लिय गाला उस जगल म मुखी और निर्भर रहती है। बदन गूजर, उस प्रान्त क भयानक मनुष्यो का मुखिया गाला का सत्तर वरस का बूढा पिता है । वह अब भी अपन साथियो क साथ चढाई पर जाता है। गाला की वयस यद्यपि बीस क ऊपर है, फिर भी कौमाय क प्रभाव स वह किशारी ही जान पडती है । गाला अपने पक्षिया क चारे-पानी का प्रवन्ध कर रही थी। दखा तो एक बुलबुल उस टूटे हुए पिंजडे स निक्ल भागना चाहता है । अभी कल ही गाला न उसे पकडा था। वह पशु-पक्षियो को पकडने गौर पालने म बडी चतुर थी। उसका यही खेल था । बदन गूजर जव बटेसर के मले म सौदागर वनकर जाता, तब इसी गाला को दख-रेख म पल हुए जानवर उस मुंहमागा दाम द जात । गाला अपन टूटे हुए पिजडे का तारो के टुकडे और मोटे सूत स वाँध रही थी। सहसा एक बलिष्ठ युवक न मुस्कराते हुए कहा-कितना को पकड़कर सदैव के लिए वन्धन म जकडती रहोगी गाला। हम लोगों को पराधीनता स बडी मित्रता ह नये । इसम बडा मुख मिलता है । वही मुख औरो को भी दना चाहता हूँ किसी स पिता, किसी से भाइ एसा ही काई सम्बध जोडकर उन्ह उलझाना चाहती हूँ, किन्तु पुरुष, इस जगली १३६ प्रसाद वाड्मय