पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 3.djvu/१६३

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मैं भीख मांगकर माती यो, तव मेरा काई अपना नही था। नाग दिल्लगी करते और मैं हंसती, हसावर हंसती । पहले ता पैने के लिए, फिर, फिर उसका लग गया-हंसने का आनन्द मिल गया। मुझे विश्वास हा गया कि इस विचित्र भूतन पर हम लोग केवल हंसी को लहरा म हिलन-डालन के लिए आ रह हैं । आह । मैं ददि थी, पर मैं उन रोनी मूरतपाले गम्भीर विद्वान या रुपया के वारा पर बैठे हुए भनभनानवाल मच्छरा को दयफर घृणा करतो, या उनका अस्तित्व ही न स्वीपर करती, जा जी खालकर हंसते न थ । मैं वृन्दावन की गली की एक हँसाड पागल थी, पर उस हंसी ने रग पलट दिया, यही हमी अपना कुछ और उद्देश्य रखन लगी। फिर विजय, धीर-धीरे जैस सावन की हरियाली पर प्रभात का वादल बनकर छा गया—मैं नाचन लगी मयूर-सी । जोर, वह यौवन का मघ वरमन लगा। भीतर-बाहर रग म छा गया । मेग अपना कुछ न रहा । मरा आहार, विचार, वश और भूपा सब बदला, जऔर नूब बदला । वह बरसात के वादना को रगीन सध्या थी, परन्तु यमुना पर विजय पाना साधारण काम न था। असभव था । मैंन सचित शक्ति म विजय का छाती स दवा लिया था और यमुना वह तो स्वय राह छोडकर हट गई थी। पर मैं बनकर भी न न सकी-नियति चारा और स दरा रही थी। और मैन अपना कुछ न रखा था, जा कुछ था, मब दूसरी धातु का था, मर उपादान म कुछ ठोम न । लामैं चली, वायम उस पर भी नतिया रोती हागी--- यमुना सिसक्ती हागो दोना मुझे गाली देती हागी, अरे-अरे, मैं हँसन वाली सबका रुलाने लगी । मैं उसी दिन धर्म स च्युत हो गई–मर गई, घण्टी पर गई! पर, यह कौन सोच रही है । हाँ, वह मरघट को ज्वाला धधक रही है --ओ, आ मरा शव | वह दषा-विजय लकडी के दुन्द पर बैठा हुआ रा रहा है और बाथम हंस रहा ह । हाय । मेरा शव कुछ नहीं करता है---न राता है, न हंसता है, तो मैं क्या है | जीवित हूँ| चारा आर य कोन नाच रह है, आह । मिर म कौन धक्के मार रहा है । मैं भी नाचूं--य चुडले हैं और म मी । तो चलूं वहाँ, आलोक है । ___घटी अपना नया रेशमा साया नाचती हुई दौड पडी। अन्धकार म चल पडी । वाथम उस समय क्लब म था। मैजिस्ट्रेट की सिफारिशी चिट्ठी को उस अत्यन्त आवश्यकता थी। पादरी जान साच रहा था-अपनी समाधि का पत्थर कहाँ स मंगाऊं, उस पर क्रास वैसा हा ! उधर घण्टी-पागल घण्टी-अंधेरे म भाग रही थी। काल १३५