पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 3.djvu/११५

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बहू । --फिर हंसन के ढग से कहा-नही पाप हुआ हा ता इन्ह भी ब्रज-परि क्रमा करन क लिए भज दीजिए । किशोरी को यह बात तीर-सी लगी । उसन झिडक्त हुए कहा-चलो जाओ आज स मर घर कभी न आना । घण्टी सिर नीचा किय चली गई। किशोरी न फिर पुकारा--विजय । विजय लडखडाता हुआ भीतर आया और विवश बैठ गया। किशोरी स मदिरा की गन्ध छिप न सकी। उसन सिर पकड निया। यमुना न विजय का धीरे से लिटा दिया। वह सो गया। विजय न अपन सम्बन्ध की किम्बदतिया को और भी जटिल बना दिया वह उन्ह मुलयान की चप्टा भी न करता था । किशोरी न बोलना छोड दिया था। किशोरी कभी-कभी साचती-यदि श्रीचन्द्र इस समय आकर लडक का सम्हाल लत । परन्तु वह बडी दूर की बात थी। एक दिन विजय और किशोरी का मुठभड हो गई । वात यह थी कि निरजन ने इतना ही कहा कि मद्यपो क ससर्ग म रहना हमारे लिए असम्भव है । विजय न हंसकर कहा- अच्छा वात ह दूसरा स्थान खोज लीजिए । ढाग स दूर रहना मुझे भी रुचिकर ह । किशारी आ गई । उसन कहा--विजय तुम इतन निर्लज्ज हा । अपन अपरावा को समझकर लज्जित क्यो नही होत ? नश की खुमारी से भरी आखा का उठाकर विजय न किशोरी की आर दखा और कहा-मे अपन कर्मों पर हंसता हूँ, लज्जित नहा हाता। जिन्ह नज्जा बडी प्रिय हो व उस अपन कामा म खाज । किशोरी ममाहत होकर उठ गई और अपना सामान बँधवान लगी। उसी दिन काशी लोट जाने का उसका दृढ निश्चय हा गया । यमुना चुपचाप बैठी थी । उसस किशोरी ने पूछा-यमुना, क्या तुम न चलोगी? वहूजी, में अब कही नही जाना चाहती यही वृन्दावन म भीख मांगकर जीवन बिता लूगी। यमुना खूब समझ ला। मैने कुछ रुपय इकट्ठे कर लिय है उन्ह क्सिी मन्दिर म चढा दूगी और दो मुट्ठी भात खाकर निवाह कर लगी। अच्छी बात है | किशोरी रूठकर उठो । यमुना को आखो स आसू वह चल । वह भी अपनी गठरी कर किशारी के जाने के पहले ही उस घर से निकलन क लिए प्रस्तुत थी। ककाल ८५