पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 3.djvu/१०७

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तू सब बातो मे अड जाता है। यह कोई आवश्यक वात नही कि मै भी पुण्य सचय करूं। -विरक्त हो कर विजय न कहा- यदि इच्छा हा ता आप चली जा सकती है, मैं तब तक यही बैठा रहूंगा। तो क्या तू यहा अकेला रहेगा? नही, मगल के आश्रम मे जा रहूंगा। वहाँ मकान बन रहा है उस भी देखूगा, कुछ सहायता भी करूंगा और मन भी बहलेगा। वह आप ही दरिद्र है, तू उसके यहा जाकर उसे और भी दुख दगा। तो मैं क्या उसके सिर पर रहेगा। यमुना तू चलेगी। फिर विजय वावू को खिलावेगा कौन ? बहूजी, मैं तो चलन के लिए प्रस्तुत किशोरी मन ही-मन हंसी भी, प्रसन्न भी हुई। और बोली--अच्छी बात है ता मैं परिक्रमा कर आऊँ क्याकि होली देखकर अवश्य घर लोट चलना है। निरजन और किशोरी परिक्रमा करने चले। एक दासी और जमादार साथ गया। वृन्दावन म यमुना और विजय केले रहे। कवल घण्टी कभी-कभी आकर हँसी की हलचल मचा देती । विजय कभी-कभी दूर यमुना के किनारे चला जाता और दिन दिन भर पर लौटता । अकेली यमुना उस हँसोड के व्यग से जर्जरित हा जाती । घण्टी परिहास करने में बडी निर्दय थी। ___एक दिन दापहर की कही धूप थी। सेठजी के मन्दिर में कोई शाकी थी। घटी आई और यमुना को दर्शन के लिए पक्ड ले गई। दर्शन से लौटत हुए यमुना न देखा, एक पांच सात वृक्षो का झुरमुट और घनी छाया । उसन समझा कोई दवालय है । वह छाया के लालच से टूटी हुई दीवार लाधकर भीतर चली गई। दखा तो अवाक् रह गई-मगल कच्ची मिट्टी का गारा बना रहा है, लडके इंट ढो रहे हैं, दो राज उस मकान की जोडाई कर रहे है। परिथम स मुह लाल था। पसीना बह रहा था । मगल की सुकुमार दह विवश थी। वह ठिठक कर खडी हो गई । घण्टी ने उसे धक्का देते हुए कहा-चल यमुना, यह तो ब्रह्मचारी है डर काहे का । -फिर ठठाकर हंस पड़ी। ___ यमुना ने एक बार उसको ओर काध से देखा । यह चुप भी न हा सकी थी वि फरसा रखकर सिर से पसीना पोछते हुए मगल ने धूमकर देखा-यमुना। ढीठ घण्टी स अब कैसे रहा जाय, वह झटककर बोली-वालिनी । तुम्हे ककाल ७७