पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 1.djvu/८३

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सुदर सहज सुभाव वदन पर मुनि-मन मोह । सूधी विमल चितौन मृगन से नैन लजोह ।। जेहि पविन मुख भाव लखे सपही सुर नारी। निज विलोल नव-हास विलासहिं करती वारी ॥ बैठो मालिनि तीर सुभगवेतसी-बुज म । विलसत परिमल पूर समीरन केश-पुज मे ॥ युगल मनोहर बनगाला अति सुन्दर सोहें। "प्रियम्बदा-अनुसूया ।" जावे नाम मिठोहैं ।। "री अनुसूया । देखु सामुहे चम्पक-लतिका । भरी सुरचि सुकुमार अग अगन मो कलिका ।। मन-ही-मन कुम्हिलात चिरत वेहाल विचारी । 'प्रियम्बदा' हग भरि चोली उमास लै भारी ।। "कोमल-क्सिलय माहिं क्ली धारति अलबेली। कुदन-सो रग जासु गढन मन हरन नवेली ॥ अपर कुसुम-कलिका सो करत फिरे रंगरेली । याहि न पूछत कोउ मधुकर सर ही अवहेली ॥ "याम मधुर मरन्द, पराग,सुगध मवै है । सुन्दर रूप, सुरग, जाहि-लसि और रजै है। पै स्खे परिमल पै सवही पाक चढावत । जैसे सूधो भाव न सब को हिय ललचावत ॥ "मातो मधुकर ह मधु-अव, विवेक न राग्वै । मुरि मुसुक्यान मनोहर पलियन को अभिलाखे ।। सूधी चम्पव-लता नहीं जानत रस केली। यहि विचार कोउ मधुकर नहिं अकहि निज मेलो ।। "इनको कुटिल स्वभाव कोऊ इनको का दोस। स्वारथ रत परपीर नही जानत किमि तोमै ॥ पाइ समीपहिं जाही सो वाही सो पागे । ये तो परम विलासी, नहिं जानत अनुरागे ।' बोली 'अनुसूया' यो-अनखि-"तोहिं का सूझी। जो बिनही बातन पर, वातन मार्हि अरुझी ।। तुम बनवासी काउ दूजा-नहिं सुनिवे वारा। बन म नाच्यो मोर कहो किन आइ निहारो?" प्रसाद वाङ्गमय।॥१८॥ -