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जब अवध की सीमा लख्यो तब खडे ह्र सह सैन के । अरु कुमुद पहँ पठयो तवै निज दूत, शुचि सुख देन के॥ "बिनु वृझि तुम अधिकृत कियो यह अवधि नगरि सुहावनी । तेहि छोडि के चलि जाहु, नतु सगर करौ ले के अनी ॥" वह तुरत आयो सैन ले, रन हेतु कुश के सामुहे। इतहूँ सुभट सव अस्त्र लै तह रोष सो सबही जुहे ।। तहँ चले तीर, नराच, भत्ल, सुमल्ल सही भिरि गये। तरवारि की बहु मारि बाढी दुई दल के अरि गये ।। वढयो क्रोध करि कुश कुमार धनु को टकारत। प्रल तेज शरजाल छाडि चहुँ दिशि हुँकारत ॥ अम्वर-अवनिहि एक कीन्ह, पर सा सर छायो। अरगिन भरि-भरि नीर नैन भागे मग कुश प्रभाव लग्वि हीन होय के, कुमुद आप हिय माहि जोय के । निज निवास महँ जायके छिप्यो ताहि दूत कुश को तहा दिप्यो ।। परमा रमणी कुमुदती धन-रत्नादि ममेत सग लै, पुश को मिलि तोप दीजिये नहिं तो सैन सजाव जग लै॥ पायो॥ चित्राधार ॥१५॥