पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 1.djvu/७८

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पुतरी पुखराज की मनो सुचि साचे महँ ढारि के बनी। उतरी कोउ देव-कामिनी छवि मालिन्य विपादमो सनी।। कर बीन लिए बजावती रजनी मे नहिं कोउ सग है । वनिता वर-रूप-आगरी सहजै हो सुकुमार अग है ।। कल-वण्ठ-व्वनी सु कोमला मिलि वीणा-स्वर सो सुहात है । कुश नीरव लम्बे सुने जनु जादू सवही लखात है।। "तुम वा कुल के कुमार हो हरिचन्द्रादि जहा उदार से। निज दुख सह्यो तज्यो नहीं सत राख्यो उर रत्न-हारसे ।। "अनरण्य दिलीप आदि ने जेहिको यल अनेक सो रच्यो। रघुवश-जहाज सो लखो यहि साम्राज्य महाधि मे बच्यो ।। "अनराजक्ता तरग मे फैसि के धारनि वे अधार है। तेहि को सबही यही है "कुश" याको वर-वर्णाधार है। "तव वश सुकीर्ति को सौ अनुहास्यो उदधी वहै अजे । निज फूलन मो बढे नही अरु मर्यादहुँ को नही तजै ।। "जेहि वीति-क्लाप-गध सो मदमाती मलयानिलो फिरे । हिम शेल अधित्यकान लौं सवको चित आनन्द सो भरे।। चित्राधार ॥११॥