यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।
रशिया बनी अप्सरियाँ अंतरिक्ष में नाचती थी। परिमल का कश कन लेकर निज रंगमंच रचती थी।
मासल सी आज हुई थी हिम्मती प्रकृति पाषाणी, उस दास रास में विहृल थी हंसती सी कल्याणी।
वह चन्द्र किरीट रजत नगर स्पनृदित सा पुरुषों पुरातन, देखता मानसी गौरी लहरा का करियर नत्रजन।
प्रतिफलित हुई सब आंखें कई उस प्रेम ज्योति विमला से, सब पहचाने है लगते
समरस थे जड या चेतन सुन्दर साकार बना था, चेतना एक विलासिता था आनंद अखंड घना था।
प्रसाद वाङ्गमय ।।७०४।।