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वर्षा के घन नाद कर रहे तट कूलो को सहज गिराती, प्लावित करती वन कुजो को लक्ष्य प्राप्ति सरिता वह जाती।" "बस । अब और न इसे दिखा तू यह अति भीषण कम जगत है, श्रद्धे । वह उज्ज्वल कैसा है जैसे पुजीभूत रजत है।" "प्रियतम ! यह तो ज्ञान क्षेत्र है सुख दुख से है उदासीनता, यहा न्याय निमम, चलता है बुद्धि चक्र, जिसमे न दीनता। रहस्य ॥ ६७९॥