पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 1.djvu/६४१

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"उगने म्नेरसिया था मुपगे हाँ मान्य पर रहा रहीं। महज लब्ध थी वह अनायता पडी रह गरे जहाँ पही। याधाना ग यतिामण पर जो अगाध हो दोड चले, वही स्नेह अपराध हो उठा जो मर मीमा तोड चले। बना, "हां अपराध किन्तु वह क्तिना एक ओरे भीम जीवा के कोने मे उठ पर इतना आज असीम बना। माया, और प्रचुर उपकार सभी वे सहृदयता पी सब गूय शूय था? केवल उसम खेल रही थी छल छाया? प्रमाद वाङ्गमय ।। ६१८३