पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 1.djvu/६४०

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शून्य राज चिन्हो से मन्दिर वस समाधि सा रहा खडा, क्योकि वही घायल शरीर वह मनु का तो था रहा पडा। बातें, इडा ग्लानि से भरी हुई बस सोच रही बीती घृणा और ममता मे ऐसी बीत चुकी क्तिनी रातें। रेता, नारी का वह हृदय । हृदय मे सुधा सिन्धु लहरें बाडव ज्वलन उसी मे जलकर क्चन सा जल रंग देता। रचती, मधु पिंगल उस तरल अग्नि मे शीतलता ससूति क्षमा और प्रतिशोध । आह रे दोनो को माया नचती। निर्वेद ॥६१७॥